देरी से विवाह करने के कारण लडक़ी व्यावहारिक रूप से अधिक परिपक्व हो जाती है। स्वभाव में समझौता करने की संभावना घटती जाती है। अत: लडक़े की जीवन शैली को पूर्णत: स्वीकार कर पाना भी संभव नहीं होता। यदि दोनों अपनी-अपनी स्वतंत्र पहचान पर अड़ जाएं तो अलग होना ही पड़ेगा। यह स्थिति असहनीय बनती जाती है। इसी बीच सन्तान होने का मुद्दा भी बड़ा बनता जाता है। दोनों के बीच दूरी इस मुद्दे को दबाने में मदद करती है। इसके दो परिणाम सामने आते हैं। अत्यधिक देरी के कारण सन्तान हो ही नहीं पाती। इससे चिकित्सा की आवश्यकता पैदा हो जाती है। दूसरा, पत्नी बच्चा पैदा ही करना नहीं चाहती। इसके लिए गर्भ निरोधक गोलियों का सहारा स्त्री को स्तन और गर्भाशय के कैंसर की ओर धकेल देता है।
वही वह काल होता है जब पति-पत्नी स्वतंत्र नौकरी में व्यस्त रहते हैं। दोनों बुद्धिजीवी अर्थात् पत्नी भी पति जैसे (पुरुष जैसे) व्यवहार करना उचित मानती है। उसमें भी अहंकार, आक्रामता, उष्णता, तर्क जैसे पौरुषीय गुण-दोष पैदा हो जाते हैं। नारी की सौयता पीछे छूट गई होती है। संवेदनाओं से पल्ला झाड़ देते हैं। अब दापत्य जीवन दो पुरुषों के बीच चलने लगता है, जो कि संभव नहीं है। दोनों के मन में एक-दूसरे के प्रति विरक्ति का भाव, बुद्धि में माया की लीला, मन में निष्ठुरता और शरीर की प्राकृतिक क्षुधा दोनों को नया मार्ग दिखा देते हैं। यहां का सारा क्रोध अन्य साथी के साथ घनिष्ठता में रूपान्तरित हो जाता है। यहीं पूर्व सबन्धों के प्रति घृणा की शुरुआत है।
आपसी मन मुटाव और झगड़ों की चर्चा अधिक समय तक छिपाई नहीं जा सकती। कई बातें सार्वजनिक चर्चा में भी पहुंच जाती हैं। नए प्रेम सबन्ध भी पूरी गति से चर्चा में आते हैं। दोनों के अहंकारों को ठेस पहुंचती है। बुद्धि समझौता करने या पीछे हटने को तैयार नहीं होती। भारतीय समाज में तलाक आज सम्मानजनक नहीं माना जाता है। पति-पत्नी में जो अधिक होशियार और साधन सपन्न होता है, वह दूसरे को जीवन से मुक्त करा देता है। ललाट पर बाल भर शिकन नहीं, बल्कि उत्सव का वातावरण। जीवन की एक बड़ी उपलब्धि।
सारा खेल शरीर के सुख का। शिक्षा भी यही सिखाती है। देरी, समझ, अहंकार आदि घातक तत्त्वों की जननी भी यही नकली-भ्रान्त करने-वाली शिक्षा ही है। ईश्वर मनुष्य रूप में पैदा करता है। शिक्षा मन और आत्मा को छीनकर पशु बना देती है। शरीर का भोग के अलावा उपयोग क्या हो सकता है। तलाक-हत्या आदि से समस्या का समाधान कहां।
पुरुष अग्नि है, स्त्री सौया है-ऋत है। अग्नि बिना सोम के मन्द पड़ती जाती है। सोम ऋत है, निराकार है। ठहरने के लिए ठोस आधार चाहिए। दोनों एक-दूसरे के पूरक बनकर ही सुख से रह सकते हैं। इसके लिए संवेदना-विश्वास का धरातल आवश्यक है। अत: शिक्षा में बुद्धि के साथ-साथ मन का भी पोषण किया जाना चाहिए। सपन्न देशों के लडक़े विवाह के लिए तैयार ही नहीं होते। उनका मानना है कि धन कमा लो, लड़कियां तो मिल जाएंगी। बदलते रहो, बंधकर रहने की क्या जरूरत है। लड़कियां स्वयं भी तो स्वतंत्र ही रहना चाहती हैं। परिवार की जरूरत क्या है। बिना सन्तान के भी एक-दूसरे को भोगा जा सकता है।
गहराई से समझने की बात यह है कि जिस मन की संवेदना के कारण हमारी योनि मानव योनि कहलाती है, नर से नारायण होने की क्षमता रखती है, उसी मन की शिक्षा के हथियार द्वारा हत्या कर दी जाती है। न पुरुष में पौरुष रहता है न स्त्री में स्त्रैण भाव। दोनों जड़वत्।
शास्त्र कहते हैं-हम शरीर नहीं, आत्मा हैं। शिक्षा सारी शरीर के सुख को ध्यान में रखकर दी जाती है। बुद्धिजीवी कहते अवश्य हैं कि अच्छा पैकेज इसलिए चाहिए, ताकि सोलह घंटे में जीवन का निर्माण किया जा सके। परिवार का पालन हो सके। आप किसी व्यावसायिक बुद्धिजीवी की जिन्दगी को पढक़र तो देखें। मैं अच्छा सम्पादक बन गया। पैकेज ठीक मिल गया। जीवन का स्वरूप देखिए! घर पर कौन जा रहा है-सम्पादक। पत्नी से कौन मिला-सम्पादक (पति नहीं), बच्चों से कौन मिला-सम्पादक (पिता नहीं), मां-बाप से कौन मिला-सम्पादक (पुत्र नहीं)। सम्पादक रह गया, व्यक्ति (मैं) खो गया। चौबीस घंटे का जीवन मेरे आठ घंटे में लीन हो गया। शरीर रह गया, मैं खो गया।