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कर्नाटक: सरकार बनाने का असल हक़ किसका?

locationनई दिल्लीPublished: May 17, 2018 06:55:52 pm

Submitted by:

Manoj Sharma

कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के बाद सरकार के गठन का पेंच अभी भी फंसा हुआ है। इस आलेख में वरिष्ठ पत्रकार करण थापर ने इसी बारीक पेंच का विश्लेषण किया है..

karan thapar
-करण थापर
(वरिष्ठ पत्रकार और टीवी प्रस्तोता)

कर्नाटक के चुनाव परिणामों ने राज्यपाल के लिए बड़ी दिलचस्प स्थिति पैदा कर दी, लेकिन इससे निपटने के लिए संविधान में स्पष्ट व्याख्या की गई है जो असमंजस पैदा नहीं करती। यह कोई पहली बार उपजी स्थिति भी नहीं है, जिसके लिए कोई साफ नजीर न हो। तो संवैधानिक तौर पर, और जो कुछ देश की राजनीति में घटित हो चुका है उसे देखते हुए, दोनों तरीके से, कर्नाटक के राज्यपाल को जो रास्ता अख्तियार करना चाहिए था, वह न केवल स्पष्ट है बल्कि विवाद की संभावना से परे भी है।
पहले हम संवैधानिक स्थिति की बात करें। कुछ लोगों का मानना है कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में भारत में सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए पहले मौका देने की परंपरा है। यह परिपाटी संवैधानिक संदर्भ में अव्यावहारिक ही नहीं है, बल्कि सिलसिला भी अब बदला जा चुका है। 1989 के लोकसभा चुनाव में पहली बार देश में त्रिशंकु संसद की स्थिति पैदा हुई। तत्कालीन राष्ट्रपति वेंकटरामन बड़ी पार्टी को पहले मौका देना चाहते थे। अगर सबसे बड़ी पार्टी का नेता सरकार न बना पाता, तो वे दूसरी बड़ी पार्टी को बुलाते। फिर तीसरी। यह तरीका उन्हीं की देन था और हमारे संविधान में भी इसका बड़ा आधार नहीं मिलता और यह ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ की व्यवस्था से भी मेल नहीं खाता, जिसका तब हम अनुसरण किया करते थे। यह बात सही है कि मूल असंशोधित संविधान में राजनीतिक दलों का उल्लेख तक नहीं है।
सही संवैधानिक स्थिति सीधी है, पर चूंकि फैसला व्यक्ति को करना होता है, कभी-कभी स्थिति उलझ भी सकती है। उसी व्यक्ति को सरकार बनाने के लिए बुलाया जाना चाहिए जिसमें बहुमत सिद्ध करने की संभावना सर्वाधिक हो। अगर किसी दल के पास बहुमत हो तो उसका नेता ऐसे आमंत्रण का अधिकारी होगा। ऐसे में चुनाव सीधा-सरल होता है।
अगर स्थिति ऐसी न हो और दूसरी या तीसरी बड़ी पार्टी का नेता बहुमत साबित करने की स्थिति में हो, तो सरकार बनाने के लिए उसे बुलाया जाना चाहिए। यह फैसला भी व्यक्तिपरक होता है, जो चीजों को उलझा सकता है। चूंकि वेंकटरामन गलत समझे जाने के भय से बहुमत वाले दल का आकलन नहीं करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने संख्या बल के आधार पर पार्टियों को बुलाने के निष्पक्ष-से नजर आने वाले सिद्धांत की रचना की।
1996 में राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने जब इस परिपाटी का अनुसरण किया तो नतीजा हास्यास्पद रूप से 13 दिन चली अल्पमत भाजपा सरकार के रूप में सामने आया, जबकि आकलन का कोई अन्य भरोसेमंद तरीका अपनाया जाता तो स्थिति कुछ और होती। वर्ष 2002, 2005 और 2013 में कश्मीर, झारखंड और दिल्ली के राज्यपालों ने दूसरा तरीका अपनाया। उन्होंने सबसे बड़े दल को छोड़कर छोटे दलों के बहुमत वाले गठबंधनों को तरजीह दी। इस तरह उन्होंने वेंकटरामन के सिद्धांत को पलट दिया।
बीते साल गोवा और मणिपुर, और इस साल मेघालय में भी यही हुआ। तीनों राज्यों में दूसरे सबसे बड़े दल का नेता राज्यपाल के समक्ष बहुमत का दावा सिद्ध करने में कामयाब रहा। समर्थन के पत्र सौंपे जाने से मामला सिरे चढ़ गया। हालांकि कांग्रेस के पास भाजपा से ज्यादा विधायक थे, लेकिन सरकार बनाने के लिए उसका दावा कमजोर पड़ता था।
जाहिर है, संविधान की अपेक्षा के अनुरूप और अनेक स्थापित नजीरों को देखते हुए यह साफ है कि कर्नाटक में राज्यपाल को क्या करना चाहिए। यदि कांग्रेस और जनता दल (एस) साथ मिलकर बहुमत का दावा कर रहे हैं और सरकार बनाने की मंशा रखते हैं तो राज्यपाल का कर्तव्य है कि वे गठबंधन के नेता को अगला मुख्यमंत्री बनने का अवसर दें।
यदि भाजपा के जनादेश के दावे को देखें तो सच यह है कि जनादेश उसके पक्ष में नहीं है। सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद उसके पास बहुमत नहीं है। जनादेश का नतीजा त्रिशंकु विधानसभा के रूप में सामने आया है। ऐसी परिस्थिति में, जिस किसी के पास बहुमत हो, मौजूदा मामले में जो कुमारस्वामी के पास है, को सरकार बनाने का अधिकार हासिल है।
भाजपा का एक और तर्क है कि कांग्रेस 122 से 77 पर आ गई है इसलिए जनादेश गैर-कांग्रेस सरकार के पक्ष में है। लेकिन जब यह तर्क पिछले साल गोवा में लागू नहीं हुआ तो अब क्यों लागू होना चाहिए। आखिरकार, महत्त्वपूर्ण यही है कि किसी पार्टी ने चुनाव में कितनी सीटें जीती हैं, यह नहीं कि कितनी सीटें हारी हैं।
भाजपा का एक और दावा बोम्मई फैसले के सहारे है कि वह फ़ैसला बताता है ऐसे मामलों में क्या करना चाहिए। जबकि वह फ़ैसला ऐसा कुछ नहीं कहता। वास्तविकता यह है कि बोम्मई फैसला सिर्फ़ यह बताता है सरकार बनने के बाद समर्थन की संख्या पर विवाद पैदा हो तो सरकार की शक्ति यानी उसके साथ कितने विधायक हैं इसका परीक्षण कैसे किया जाय। उन्हें तो केवल यह निर्णय करना था कि सरकार बनाने के लिए किसको आमंत्रण दें। संविधान और परिपाटी इस संदर्भ मेंबहुत स्पष्ट हैं।
कर्नाटक की स्थिति राज्यपाल की संवैधानिक समझ और पिछले उदाहरणों के प्रति सम्मान की ही नहीं, बल्कि निष्पक्षता जाहिर करने की भी है। जद (एस)-कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका देने की बात कुछ को अजीब लग सकती है, लेकिन ऐसा है नहीं। दूसरी तरफ, अगर राज्यपाल यह जानते-बूझते हुए भी, कि भाजपा के पास बहुमत नहीं है, भाजपा को पहले बुलाते हैं, तो वे भाजपा को दूसरी पार्टियों को तोडऩे का अवसर ही मुहैया कराएंगे। क्योंकि यह अनुचित होगा इसलिए, फिर से कहना चाहिए, कि यह असंवैधानिक भी होगा।
(नोट: यह लेख भाजपा को कर्नाटक राज्यपाल की ओर से आमंत्रण और उस पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से पहले लिखा गया था।)

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