scriptKCK Death Anniversary: कर्पूर चन्द्र कुलिश ने दिखाई चेतना के विकास की राह | KCK Death Anniversary Legend of journalism Karpoor Chandra Kulish | Patrika News

KCK Death Anniversary: कर्पूर चन्द्र कुलिश ने दिखाई चेतना के विकास की राह

Published: Jan 17, 2022 11:32:05 am

Submitted by:

Giriraj Sharma

Karpoor Chandra Kulish Death Anniversary सदैव ज्ञान के विस्तार और चेतना के विकास की राह दिखाने वाले पत्रकारिता के पुरोधा श्रद्धेय कर्पूर चन्द्र कुलिश की आज पुण्यतिथि है। इस अवसर पर श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए राजस्थान पत्रिका में समय-समय पर कुलिश जी के लिखे संपादकीय अग्रलेख व आलेखों के चुने हुए अंशों पर डालते हैं एक नज़र –

karpoor_chand_kulishji.jpg

Karpoor Chandra Kulish ji

Karpoor Chandra Kulish Death Anniversary: पत्रकारिता के पुरोधा एवं राजस्थान पत्रिका के संस्थापक श्रद्धेय कर्पूर चन्द्र कुलिश ने पत्रकारिता के माध्यम से सदैव ज्ञान के विस्तार और चेतना के विकास की राह दिखाई। पत्रकारिता में उच्च मापदंड स्थापित किए। पत्रिका आज भी लगातार उनके बताए रास्ते पर चलकर निर्भीक व निष्पक्ष पत्रकारिता की मिसाल बना हुआ है। श्रद्धेय कुलिश जी की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए राजस्थान पत्रिका में समय-समय पर कुलिश जी के लिखे संपादकीय अग्रलेख व आलेखों के चुने हुए अंश पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। ये आज की परिस्थितियों में भी सामयिक व मनन करने योग्य हैं।

सहज ही प्रकट नहीं होते मतदाता के भाव
मतदान में केवल बारह दिन शेष हैं परंतु वातावरण में वह रंगीनी व हलचल नजर नहीं आती और चुनाव प्रचार में वैसी सरगर्मी देखने में नहीं आती जैसी आम चुनावों में बहुधा देखने में आती रही है। इसका कारण तो यह माना जा सकता है कि ये चुनाव अप्रत्याशित रूप से हो रहे हैं जिसके लिए मतदाता का मानस तैयार ही नहीं था। इसका कारण यह भी हो सकता है कि पेट्रोल-डीजल, कागज, मोटरों और मजदूरी के भाव बहुत बढ़ गए हैं।

उम्मीदवार सोच-समझकर अपने बजट का उपयोग कर रहे हैं। तीसरा कारण देशव्यापी अकाल भी समझा जा सकता है। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि पिछले कुछ महीनों में अवांछित राजनीतिक उथल-पुथल के कारण मतदाता का मानस मंथन प्रक्रिया से गुजर रहा है। मतदाता सहज ही अपने भाव प्रकट नहीं करना चाहता।
(वर्ष 1980 के आम चुनावों में मतदाताओं के मानस को लेकर 23 दिसंबर 1981 के अंक में )

यह भी पढ़ें – अंग्रेजियत हावी

छुआछूत मिटाने के कोरे जतन
संविधान में आरक्षण को सीमित अवधि के लिए स्थान दिया गया है। जब-जब अवधि समाप्त हुई उसे बढ़ाने के प्रस्ताव को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया। यह इसका परिचायक है कि दलित व शोषित जातियों को ऊपर उठाना एक राष्ट्रीय कर्म है।

संविधान में आरक्षण ठीक तो है पर उससे सांकेतिक या आंशिक लाभ ही हुआ है अर्थात चंद लोगों को लोकसभा या विधानसभाओं और मंत्रिमंडलों में कुर्सी और नौकरी मिल गई। कुल मिलाकर सवर्णों का एक नया तबका बन गया और वे ‘साहब’ कहलाने लगे।
(बाबू जगजीवन राम के बयान पर 1 मार्च 1981 के अंक में)

पूर्णत: राजनीतिक मसला
अगर अपने ही दल के संसद सदस्य प्रधानमंत्री के पास मुख्यमंत्री की शिकायतें लेकर पहुंचने लगेंगे तो इससे प्रधानमंत्री का भार उल्टा बढ़ेगा और उसकी भी एक सीमा है। राजस्थान के राजनीतिक तंत्र को संभालने की जिम्मेदारी मुख्यमंत्री को स्वयं उठानी होगी।

अगर जन प्रतिनिधियों को सम्पर्क विहीन होने की शिकायत है तो उसे दूर करना जरूरी है। यह शिकायत किस तरह दूर हो यह सोचना भी मुख्यमंत्री का ही काम है। यह पूर्णत: राजनीतिक मसला है तंत्र आंकड़ों का नहीं।
(सांसदों द्वारा राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री की शिकायत पर 3 मई 1977 के अंक में)

यह भी पढ़ें – लोकतंत्र या ‘तंत्रलोक’

विनाश का कारण बेतरतीब बसावट
जयपुर में अतिवृष्टि से जो विनाश हुआ उसका मुख्य कारण आम तौर पर दोषपूर्ण बसाई गई बस्तियां हैं। यह बात जिम्मेदार लोग, यहां तक कि मुख्यमंत्री भी मानते हैं। संतोष है कि फिर से विकास की बातचीत शुरू हो गई है।

मुख्यमंत्री ने विशेषज्ञों से कहा है कि वे शहर के पुननिर्माण के लिए ऐसी योजना प्रस्तुत करें जिनमें वे दोष न रहें जिनके कारण बस्तियां उजड़ जाएं। पुराने शहर से बाहर कोई भी बसावट करने से पहले यह ध्यान रखना जरूरी है कि शहर में पुरानी बसावट का आधार क्या रहा है?
(जयपुर में हुई अतिवृष्टि के बाद 4 अगस्त 1981 के अंक में)

धारणा बदलने की जरूरत
यह धारणा बनी हुई है कि बड़े उद्योगपति ही सीमेंट के कारखाने लगा सकते हैं। इसी के वशीभूत होकर हाल ही सीमेंट को ऐसे 19 उद्योगों की सूची में रखा गया है जिनको हाथ में लेने के लिए बड़े पूंजीपतियों व विदेशी कंपनियों को भी अनुमति दी गई है।

सीमेंट के वर्तमान संकट को देखते हुए इस धारणा को बदलने की सख्त जरूरत है। सीमेंट के छोटे-छोटे कारखाने लगाने की योजना पर विचार किया जाना चाहिए। अगर इस्पात का छोटा कारखाना (मिनी प्लांट) लग सकता है तो फिर सीमेंट का क्यों नहीं? प्रयोग के तौर पर सौ टन रोज की क्षमता वाले प्लांट लगाए जाने चाहिए।

इस तरह के कारखानों में अलबत्ता ज्यादातर हाथ से काम होगा। उत्पादन खर्च ज्यादा हो सकता है लेकिन इससे रोजगार सृजन के अवसर बढेंग़े। दूसरा लाभ, इनसे तैयार होने वाला माल राज्य में ही खपाया जा सकेगा।
(सीमेंट के संकट पर 4 जून 1973 के अंक में)

यह भी पढ़ें – प्रदूषण अब भी चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बन पा रहा?

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो