लोग तो प्लेट में दुनिया भर का खाना भर लेते हैं और उनसे चार लुकमे भी खाए नहीं जाते। कसम से इतना खाना खराब होता है कि पूछो मत।
कहवाघर की छोटी-छोटी कुर्सियों पर एक मेज के इर्द-गिर्द बैठे दोस्तों से पुराने मित्र मूलजी बोले- यारों। एक छोटी-सी ज्यौनार करने का जी हो रहा है। मूलजी की बात को पकड़ते हुए मित्र गोजो ने सवाल किया- किस खुशी में। मूलजी बोले- बस दोस्त मेहरबानों के संग कोलाकैरी की सब्जी, गर्मागरम पूरी और मोतीचूर के लाडू खाने का मन हो रहा है। मूलजी की बात सुनते ही हमारे मुंह में पानी भर आया। स्वाद स्मृति से ही भरे मुंह के पानी को गिटकते हुए हमने कहा- मूलजी भाई साब। आपने तो बचपन की स्मृतियां ताजा कर दी।
कसम से जब से अपना गांव छोड़कर राजधानी में आ बसे हैं तब से पुराने स्वाद तो अन्तध्र्यान ही हो गए। मित्रों-रिश्तेदारों की कृपा से साल में सौ-पचास दावतों के निमन्त्रण मिल ही जाते हैं पर हर कहीं मटर पनीर, दालफ्राई, मिक्स वैज और मैदे के नान खा खाकर हमारा तो ‘मेदा’ ही खराब हो चला है। हमारी बात का समर्थन करते हुए गोजो गुरु बोले- तुम्हारा जो हाल है वही हमारा है। कसम से अब तो ब्याह शादी में खड़े-खड़े खाना खाते-खाते घुटनों ने ही जवाब दे दिया।
हमें तो अपना बचपन याद आ रहा है जब पातल-दोने में मजे से जीमते थे। आलू के झोल की सब्जी और गर्मागरम पूरी स्वर्ग का सा सुख देती थी। ऊपर से दही के रायते का तो कहना ही क्या! अब किसी खाने में जाओ तो लोग सबसे पहले गोलगप्पों और आलू की टिकिया पर टूट पड़ते हैं। इसके बाद न्युडल्स और इडली-सांभर। इसके बाद अंटशंट न जाने क्या-क्या? अब तुम ही बताओ आदमी का पेट है या बिस्तरबंद। चार दोने चाट के चाट लिए तो आधे से ज्यादा पेट तो भर ही जाता है। इसके बाद आदमी ‘मेनफोर्स’ पर आता है। ऐसे में वह क्या खा पाता है।
बाज लोग तो प्लेट में दुनिया भर का खाना भर लेते हैं और उनसे चार लुकमे भी खाए नहीं जाते। कसम से इतना खाना खराब होता है कि पूछो मत। पुराने बखत की ज्यौनारों की बची मिठाई तो दस-पन्द्रह दिन तक खराब नहीं होती थी क्योंकि सारी चीजें शुद्ध घी-तेल में बनती थी। अब तो हलवाई ही बची सब्जियों को रात में ही फेंक देता है क्योंकि वह जानता है कि सुबह इन सब्जियों से तरह-तरह की बास आने लगेगी क्योंकि सब्जियां बनाते बखत न जाने कौन-कौन से मसाले और एसेन्स डाले जाते हैं। हमने भी स्मृतियों के सागर में गोते मारते हुए कहा- मूलजी।
हमें तो अपनी नानी याद आ रही है जो घर में ही आम, मिर्च, कैर और नीबू का अचार बनाती थी। बेजड़ की रोटी पर कचरी मिर्च रखकर खाने का आनन्द तो अब भूल ही चुके हैं। एक जमाने गेहूं की फुलके और चावल बूरे से जंवाई-समधियों का सत्कार होता था। क्या वे दिन और वह खाना वापस आ सकता है?
गुरु गोजो ने हमें खामखा भावुक होता देखकर कहा- भाई ये चीजें तो आज भी मुहैया है पर स्वाद खत्म हो गया। हमारी दादी जब घर में अचार छोंका करती थी तो सारे मोहल्ले को पता चल जाता था। अब तो कांच की बोतलों में बंद अचार ही खुशबू दूसरों की छोड़ो खुद की नाक तक ही नहीं पहुंच पाती। हमने आह भरते हुए कहा- मूलजी भाईसाब। आप तो ज्यौनार करो। पर शर्त यही है कि पूरी-सब्जी, लाडू-भजिया के अलावा पत्तल में कुछ और नहीं होगा। असल खाने का मजा तो तभी आएगा।
राही