किस्से में क्या होता है – किस्सापन! कहानी में क्या मजा देता है – उसका कहानीपन! नाटक के लिए पूछा जाता है – नाटक में नाटकीयता कितनी है? मां जब रोते बच्चे को बहलाती है तो बात को कैसे सुनाती है कि बच्चा अपना रोना भूलकर उसकी बातों में बहल जाता है, खो जाता है; बस ऐसे ही कहानी लिखनी चाहिए। ऐसे ही संस्मरण और ऐसे ही गद्य की कोई भी विधा कि पाठक, पाठक न रहे, बहता हुआ नाविक हो जाए। जैसे कविता में एक लय होती है ऐसे ही गद्य-रचना में भी एक तारतम्यता होती है। आप कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र सब के नियम-विधान सीख लीजिए जब तक आप कथा के एक-एक वाक्य में कथारस नहीं रच देते, आप रचयिता नहीं हुए। एक-एक पंक्ति पर काम कीजिए। कहानी की पहली-दूसरी पंक्ति में ही पाठक को पकड़ लीजिए, ऐसा कि वह अंतिम पंक्ति तक छूटने न पाए।
अब सवाल – आए कैसे कथा रस? वह लिखिए जो सचमुच लिखने का मन हो, सिर्फ लिखने के लिए कभी मत लिखना। दिल करे और बहुत दिल करे, तभी लिखना। और लिखना भी वही जो दिल में हो, जो खुद महसूस किया हो। जब दूसरे पर लिखना, तब दूसरा होकर ही लिखना यानी कि परकाया प्रवेश। पेड़ पर लिखना तो एक बार अपना पेड़ होना सोचना, उसकी मिट्टी, हवा, नमी को सोचना। चिडिय़ा पर लिखना तो उड़ान को जानकर-सोचकर लिखना। जो लिखना वही होकर, रम कर, उसमें रच-बसकर लिखना। और हां, शब्द-स्फीति से बचना यानी कहानी को जितना चाहिए उतना ही देना उसे; जो न चाहे कहानी वो उसे जबरन न देना – न घटना, न पात्र, न शब्द! सबसे जरूरी बात, रचना को अपना सर्वश्रेष्ठ देना। अगर कोई संस्मरण लिखते समय लेखक के आंसू बह रहे हैं, तो यकीन मानिए पढ़ते समय पाठक की आंखें भीगेंगी ही। बाकी, अपने विचार को संवारना ज्ञान और जीवन बोध से। संस्कृत के आचार्य कहते हैं, लेखक तीन चीजों से बनता है – प्रतिभा, अध्ययन, अभ्यास।
और आखिरी बात ये कि आपकी मौलिकता ही आपका नयापन है। बेईमानी नहीं करना; जो सच में लिखना चाहते हैं, उससे न बचना, न किसी के डर से उसे बदलना।