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भाषा आधारित “नस्लभेद”

Published: Jan 16, 2015 12:12:00 pm

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अंग्रेजी भाषा भारत में एक बड़ी विभाजक है। जो लोग अंग्रेजी भाषा में प्रवीण हैं वो उन लोगों को …

अंग्रेजी भाषा भारत में एक बड़ी विभाजक है। जो लोग अंग्रेजी भाषा में प्रवीण हैं वो उन लोगों को तुच्छ समझते हैं जो लोग केवल भारतीय भाषा में प्रवीण हैं। भारत एक विशाल देश के रूप में भाषा के आधार पर इतना गहरा विभाजन रखने वाला अनोखा देश है।

शेखर स्वामी, ग्रुप सीईओ, आरके स्वामी हंस एवं अतिथि प्रोफेसर, नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी, अमरीका
कुछ सप्ताह पहले इटावा हिन्दी सेवा ट्रस्ट द्वारा आयोजित एक समारोह में बोलते हुए समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव ने कहा कि संसद में संसद सदस्यों द्वारा अंग्रेजी में संबोधित करने पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। यह तर्क देते हुए कि, “जो देश अपनी मातृभाषा का प्रयोग करते हैं वे ज्यादा विकसित हैं”, उन्होंने हिन्दी को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर जोर डाला। ये सफाई देते हुए कि वो अंग्रेजी के खिलाफ नहीं हैं, यादव ने कहा, “भारत में अंग्रेजी बोलने वाले लोग अभिमान महसूस करते हैं और अपने आप को दूसरों से श्रेष्ठ समझते हैं।”

जैसा कि अनुमान था अंग्रेजी मीडिया का जवाब तुरंत आ गया। मैंने अंग्रेजी के बड़े अखबारों में दो लेख देखे जिसमें यादव की सलाह की निन्दा की गई थी। एक अखबार ने लिखा था “अंग्रेजी पर प्रतिबंध लगाने की आवाज उठाकर यूपी का अतीत की ओर कूच करना ही प्रतीत होता है।” इस कदम को “पतनकारी” बताते हुए एक और अखबार ने लिखा, “अंग्रेजी से घृणा करने के कारण कई राज्यों को उसका परिणाम भुगतना पड़ा है- पश्चिमी बंगाल इस बात का सबूत है। भारत की आईटी/आईटीईएस क्रांति की सफलता का बहुत बड़ा श्रेय इस भाषा को ही जाता है”।

मैं कभी भी मुलायम सिंह यादव से नहीं मिला हूं और समाजवादी पार्टी का पक्ष भी नहीं लेता। इसके बावजूद, ऎसा कुछ जरूर लगता है कि जो यादव ने कहा है, उसकी निन्दा करना और संदेशवाहक के कारण संदेश ठुकराना, उन धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले लोगों के लिए एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। लेकिन दुनिया में एक नजर घुमाने पर हमें यादव से सहमत होना पड़ेगा कि चीन, जापान, जर्मनी और दक्षिण कोरिया जैसे बड़े देशों ने अपनी खुद की भाषा को आधार रखते हुए और अंग्रेजी भाषा को मात्र अंतरराष्ट्रीय व्यापार में इस्तेमाल करते हुए अपार सफलता और नेतृत्व हासिल किया है। अंग्रेजी के अनुकरणकर्ताओं द्वारा हमेशा ही दिया जाने वाला तर्क कि सफलता के लिए अंग्रेजी भाषा में प्रवीणता पहली आवश्यकता है, कुछ नहीं बल्कि एक बहुत बड़ी बकवास है और वैश्विक निगाह से देखने पर यह तर्क अपने आप ही निराधार हो जाता है।

दरार बढ़ाती अंग्रेजी
भारत में हमें ये तो मानना पड़ेगा कि जो लोग अंग्रेजी में प्रवीण हैं, वो अपने आप को किसी प्रकार से उन लोगों से ऊंचा समझते हैं, जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती। यह आए दिन देखा जाता है। यह लाखों लोगों के मानस में गहरा बैठा हुआ है और ये कुछ नहीं बल्कि नस्लभेद का एक अनोखा रूप है जो माना जा चुका है और अनजाने में इन लोगों द्वारा इसे बढ़ावा भी दिया जाता है, जो अंग्रेजी में प्रवीण हैं। इसने समाज में गंभीर रूप से दरार डाल दी है। समाज मेंकरोड़ों लोग ऎसे भी हैं जो अपनी खुद की भाषाओं में प्रवीण हैं, लेकिन अपने आप को पिछड़ा हुआ और संभ्रमित महसूस करते हैं तथा किसी हद तक गुस्से में हैं।

इस सम्बंध में, भारत भिन्न है, क्योंकि ये अकेला ऎसा विशाल देश और उभरती हुई विश्व आर्थिक शक्ति बन रहा है, जिसने अपनी भाषाओं की जड़ों को नकारना स्वीकारा है तथा जिसने भाषा के आधार पर अपने बीच में गहरी दरार पैदा कर ली है। इस भाषा आधारित नस्लभेद की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कीमत बहुत बड़ी है। देश के विकास को रोके रखने के कई मायनों में बहुत बड़ा कारण हो सकती है।

अपनी भाषा को प्राथमिकता
नस्लभेद कई रूपों में देखने को मिलता है। जब लोग अल्पसंख्यकों को तुच्छ समझते हैं तब नस्लभेद होता है- जैसे पश्चिम देशों में श्वेत बनाम अश्वेत। दक्षिणी अफ्रीका में रंगभेद। इस मामले में भी जहां भारत में अंग्रेजी में प्रवीण लोग बाकी भारतीयों को हीन दृष्टि से देखते हैं। जब भारतीयों को बिना किसी प्रतिबंध के चयन का अधिकार दिया जाता है तो वे किस भाषा को प्राथमिकता देते हैं? रोजाना पढ़े जाने वाले अखबारों और देखे जाने वाले टेलीविजन चैनलों द्वारा भारतीय हर दिन यह चुनाव करते हैं। एक जैसे मूल्य वाले पसंद के किसी भी भाषा के अखबार को वो खरीद और पढ़ सकते हैं, या सभी भाषाओं में उनके घरों में आने वाली सैकड़ों टीवी चैनलों में से चुन सकते हैं। अखिल भारतीय स्तर पर भारतीय भाषाओं के हर नौ पाठकों की तुलना में अखबारों का एक अंग्रेजी पाठक होता है। राज्यों के अनुसार ये अनुपात बदलता रहता है।

जब टेलीविजन दर्शकों की बात हो तो आंकड़े भारतीय भाषाओं के पक्ष में और ज्यादा होते हैं। अखिल भारतीय स्तर पर, गैर-अंग्रेजी बनाम अंग्रेजी दर्शकों का अनुपात बहुत ज्यादा 14 पर 1 का है, यूपी और महाराष्ट्र में ये 13 पर 1 का है, प. बंगाल में 9 पर 1, तमिलनाडु में 6 पर 1 और इसी तरह अन्य भी। दिल्ली में ये अनुपात गैर-अंग्रेजी (मुख्यत: हिन्दी) के पक्ष में 19 पर 1 का है।

कहीं इन जानकारियों को ग्रामीण भारत से प्रभावित न देखा जाए, इसलिए गैर-अंग्रेजी पर अंग्रेजी पाठकों और दर्शकों का अनुपात 8 शीर्ष महानगरों में विश्लेषित किया गया। शीर्ष के 8 शहरों में , गैर-अंग्रेजी पर अंग्रेजी का पाठकगण अनुपात 2 पर 1 का है, जबकि टीवी दर्शकगण का अनुपात 12 पर 1 का है। पाठकों का अनुपात दिल्ली में 1 पर 1 की सीमा में आता है तो पुणे में बढ़कर 7.5 पर 1 और अहमदाबाद में 11 पर 1 का हो जाता है। सभी 8 महानगरों के लिए टेलीविजन दर्शकगण अनुपात 12 गैर-अंग्रेजी पर 1 अंग्रेजी के साथ जबरदस्त ढंग से गैर-अंग्रेजी के पक्ष में है, और चेन्नई में 7 पर 1 की कम सीमा में रहते हुए अहमदाबाद में अंग्रेजी के नगण्य दर्शकगण तक पहुंच जाता है।

अखिल भारतीय स्तर पर एसईसी ए समूह में पाठकगण का अनुपात हर 1 अंग्रेजी पाठक पर 2.2 गैर-अंग्रेजी के पक्ष में है। क्षेत्र अनुसार पाठकगण का अनुपात यूपी में 4.7 गैर-अंग्रेजी पर 1 अंग्रेजी है, महाराष्ट्र में 1.3 पर 1, पश्चिम बंगाल में 1.9 पर 1 और तमिलनाडु में 2 पर 1 है। अखिल भारतीय स्तर पर एसईसी ए समूह में गैर-अंग्रेजी पर अंग्रेजी टीवी दर्शकगण का अनुपात 10 पर 1 है; बड़े राज्यों में सबसे कम अनुपात पश्चिमी बंगाल और तमिलनाडु में 4 पर 1 का है।

अंग्रेजी एक स्पष्ट अल्पसंख्यक
तो ये बात साफ हो गई कि अंग्रेजी के साथ वैसा ही व्यवहार होना चाहिए जो वो है- भारत की कई भाषाओं में से एक, बिना किसी विशेष स्थान के, बस एक और भाषा। हालांकि जैसा यादव ने राय दी है, हमें अंग्रेजी को प्रतिबंधित करने की जरूरत नहीं है मगर भारतीय संसद जैसे जनता के मंच को भारतीय
भाषाओं में चलाने पर जोर दिया जाना चाहिए जिसको कि लोग स्पष्ट रूप से रोजमर्रा के जीवन में प्राथमिकता देते हैं। देश की आम जनता यहां हो रहे भाषा आधारित नस्लभेद के कारण पीछे रह जाने से एक बहुत बड़ी कीमत चुका रही है। इस पर गंभीर रूप से अध्ययन और चर्चा होनी चाहिए। क्रमश:

अखबारों के भाषा आधारित पाठक (उम्र 12+)
राज्य जनसंख्या गैर-अंग्रेजी अंग्रेजी गैर अंग्रेजी पर मुख्य भाषाएं
करोड़ में (हजार में) (हजार में) अंग्रेजी अनुपात
उत्तर प्रदेश 20 22,686 968 23 पर 1 हिन्दी
महाराष्ट्र 11.2 27,149 5,796 5 पर 1 मराठी, गुजराती, हिन्दी, उर्दू
बिहार 10.4 9,686 263 37 पर 1 हिन्दी
पं. बंगाल 9.1 12,453 1,996 6 पर 1 बंगाली, हिन्दी, उर्दू
आंध्र प्रदेश 8.5 14,390 1,262 11 पर 1 तेलगू, उर्दू
मध्य प्रदेश 7.3 8,876 220 40 पर 1 हिन्दी
तमिलनाडु 7.2 15,544 1,863 8 पर 1 तमिल
राजस्थान 6.9 13,916 365 38 पर 1 हिन्दी
कर्नाटक 6.1 10,459 1,552 7 पर 1 कन्नड, मराठी, तमिल, तेलगू, उर्दू
गुजरात 6.0 11,787 444 27 पर 1 गुजराती, हिन्दी
ओडिशा 4.2 4,915 300 16 पर 1 उडिया, हिन्दी, तेलगू
केरल 3.3 20,446 601 36 पर 1 मलयालम, कन्नड
झारखण्ड 3.3 4,812 205 24 पर 1 हिन्दी, बंगाली
असम 3.1 1,740 344 5 पर 1 असमी, बंगाली
पंजाब 2.8 5,086 583 9 पर 1 पंजाबी, हिन्दी
छत्तीसगढ़ 2.6 3,005 38 79 पर 1 हिन्दी
हरियाणा 2.5 4,232 652 7 पर 1 हिन्दी
दिल्ली 1.6 4,440 4,401 1 पर 1 हिन्दी
समस्त भारत 121 2,00,011 22,868 9 पर 1 —
स्रोत- सेन्सस पॉपुलेशन : इंडियन रीडरशिप सर्वे 2012, क्वार्टर 4

भाषावार टेलीविजन दर्शक (उम्र 15+)
रविवार 24 नवंबर, 2013 को रात 9.15 बजे
राज्य शहरी दर्शक गैर अंग्रेजी अंग्रेजी गैर अंग्रजी पर
करोड़ में (हजार में) (हजार में) अंग्रेजी अनुपात
उत्तर प्रदेश 4.2 6,805 525 13 पर 1
महाराष्ट्र 4.9 9,617 746 13 पर 1
बिहार 0.2 290 26 11 पर 1
पं. बंगाल 1.9 3,484 404 9 पर 1
आंध्र प्रदेश 1.8 3,753 517 7 पर 1
मध्य प्रदेश 1.9 3,509 117 30 पर 1
तमिलनाडु 1.8 3,537 545 6 पर 1
राजस्थान 1.6 2,693 48 56 पर 1
कर्नाटक 1.5 3,781 296 13 पर 1
गुजरात 2.3 4,190 85 49 पर 1
ओडिशा 0.3 534 40 13 पर 1
केरल 0.6 1,390 38 37 पर 1
झारखण्ड 0.3 636 48 13 पर 1
असम 0.1 202 36 6 पर 1
पंजाब 0.3 506 13 39 पर 1
छत्तीसगढ़ 0.3 597 31 19 पर 1
दिल्ली 1.9 4,018 215 19 पर 1
पंजाब 2.1 3,675 127 29 पर 1
भारत 27.6 52,711 3,846 14 पर 1

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