इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में हुई हिंसा से संबंधित मुकदमे में सज्जन कुमार और अन्य को सजा सुनाते हुए अदालत ने पुलिस की अकर्मण्यता पर बहुत सख्त टिप्पणी की। हिंसा के प्रायोजकों के साथ मिलीभगत और पुलिस द्वारा उसकी कानून-सम्मत भूमिका की अनदेखी पर अदालत ने सवाल उठाए। कुछ ही माह पहले मेरठ के हाशिमपुरा नरसंहार में लिप्त दर्जन से अधिक पुलिसवालों को कारावास की सजा सुनाई गई थी। हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र व गुजरात में हुए आरक्षण आंदोलनों में भी पुलिस की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगाए जाते रहे हैं। पुलिस सुधारों से संबंधित पूर्व पुलिस अधिकारी प्रकाश सिंह की याचिका पर उच्चतम न्यायालय लगातार सुनवाई कर रहा है। इस पृष्ठभूमि में पुलिस सुधारों की प्रासंगिकता पर चर्चा जरूरी हो जाती है।
पराधीन भारत में पुलिस, अंग्रेजी हुक्मरानों की कठपुतली थी। अंग्रेजी प्रशासन के हितों की किसी भी कीमत पर रक्षा करना पुलिस के अस्तित्व का आधार था। स्वतंत्र भारत में भी कमोबेश यही स्थिति बनी रही। फर्क इतना भर हुआ कि अंग्रेजी अफसरों की जगह सत्ता पक्ष के राजनेताओं ने ले ली। अपने आकाओं के प्रति समर्पण पुलिस के डीएनए में शुरू से ही था। नतीजतन कानून लागू करने वाली एक निष्पक्ष और स्वतंत्र संस्था के रूप में पुलिस कभी विकसित ही नहीं हो पाई।
ऐसा नहीं है कि पुलिस को नागरिक-परक तथा कानून के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए प्रयास नहीं हुए, लेकिन स्थिति ढाक के तीन पात जैसी ही रही। आजादी के तुरंत बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेषज्ञ सर डब्लूसी रैक्लेस को भारत सरकार ने भारतीय कानूनों और व्यवस्था को नागरिकों के प्रति संवेदनशील और जवाबदेह बनाने के लिए सुझाव देने के लिए आमंत्रित किया था। आपातकाल में पुलिस की आलोच्य भूमिका के मद्देनजर ‘धर्मवीर पुलिस कमीशन’ का गठन किया गया था। कमीशन ने सात भागों में अपनी सिफारिशें सरकार को दी थीं। वर्ष 1996 में प्रकाश सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके कमीशन की रिपोर्ट लागू करने की गुहार लगाई थी। वर्ष 2000 में सरकार ने ‘मलीमथ कमेटी’ का गठन करके आपराधिक न्याय-व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए सुझाव मांगे थे। ये सुझाव कमेटी ने 2002 में दे दिए थे और इनमें से कुछ पर अमल भी हुआ था।
वर्ष 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रकाश सिंह की याचिका पर निर्णय देते हुए पुलिस सुधारों को लागू करने के कुछ निर्देश दिए थे। इनमें पुलिस अधिकारियों के ट्रांसफर और नियुक्तियों को निष्पक्ष एवं पारदर्शी बनाना शामिल था, ताकि पुलिस अधिकारी राजनीतिक आकाओं के चंगुल से मुक्ति पा सकें। इसके अलावा अनुसंधान की गुणवत्ता सुधारने के निर्देश भी दिए गए थे। अधिकतर राज्य सरकारें इन निर्देशों को लागू करने में विफल रही हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस की अलग-अलग दो शाखाएं स्थापित करने के निर्देश दिए थे। पुलिस बल की कमी के कारण ऐसा करना असंभव है। सभी राज्यों में पुलिस के लगभग एक तिहाई पद खाली पड़े हैं। भर्ती प्रक्रिया दोषपूर्ण है और प्रशिक्षण के नाम पर औपचारिकताएं ही पूरी की जा रही हैं। अनुसंधान का स्तर बेहद खराब है। अधिकतर अधिकारी कानून की बारीकियों से तो क्या, साधारण कानूनी प्रावधानों से भी अनभिज्ञ हैं। साइबर क्राइम, सोशल मीडिया, सूचना तकनीक और आर्थिक अपराधों से संबंधित अनुसंधान तो बहुत दूर की बात है।
दंगों में पुलिस और प्रशासन की भूमिका पर लगातार प्रश्नचिह्न लगते रहे हैं। अकर्मण्यता तथा अत्यधिक बल प्रयोग के आरोपों के बीच पुलिस अपनी न्यायसंगत भूमिका ढूंढने में लगातार असफल रही है। पुलिस के उच्च अधिकारियों की स्थिति भी कोई ज्यादा अच्छी नहीं है। इन सब कमियों का खामियाजा साधारण नागरिक भुगत रहे हैं। न्याय की तलाश में उनका सफर एक अंतहीन यात्रा बन रहा है। हताशा में, इसीलिए, नागरिक अपना न्याय खुद करने के लिए सड़कों पर आने लगे हैं।
किसी भी सार्थक सुधार-प्रक्रिया की डगर हकीकतों के गलियारे से गुजरनी चाहिए। सुधारों का आधार आवश्यकताओं की नींव पर टिका होना चाहिए। परिधान बदलने, शृंगार कर देने अथवा उधड़े हुए की सिलाई करने को सुधार नहीं कह सकते। सुधार के लिए आत्मा बदलनी पड़ती है, गुणसूत्रों का पुन: निर्धारण करना पड़ता है और रुग्ण हिस्से को काटकर शरीर से अलग करना पड़ता है। व्यवस्था ऐसा करने की एकमुश्त अनुमति दे देगी, इसकी संभावना बहुत कम है। परंतु कहीं से तो शुरुआत करनी पड़ेगी।
पुलिस का काम बहुआयामी हो चुका है, जिसे विशेषज्ञ ही कर सकते हैं। ‘पुलिस अनुसंधान’ को ‘अपराध’ और ‘आपराधिक प्रक्रिया’ के साथ संविधान की समवर्ती सूची में नए विषय के रूप में शामिल कर निगरानी के लिए एक संवैधानिक संस्था अथवा न्यायिक प्राधिकरण स्थापित किया जा सकता है। व्यवस्था के लिए अलग शाखा स्थापित करके अलग से दक्ष पुलिस बल की स्थापना की जा सकती है जो राज्य सरकार के अधीन हो। ‘सेवाएं एवं शिकाय’ नाम से एक तीसरी शाखा गठित की जा सकती है जो ‘जन-निगरानी’ के अधीन हो। इन तीनों शाखाओं की आवश्यकताओं के अनुरूप अलग-अलग योग्यता के पुलिस कर्मी और अधिकारी भर्ती किए जा सकते हैं।
इन सुधारों को लागू करने में सबसे बड़ी बाधा राजनीतिक स्वीकृति की होगी। इसमें संदेह है कि राजनीतिक व्यवस्था किसी ऐसे परिवर्तन को मान्यता देगी जो उनके पूर्णतया नियंत्रण वाली वर्तमान व्यवस्था में किसी प्रकार का दखल देता हो।
(लेखक, हरियाणा के पुलिस महानिदेशक रहते कानून में डॉक्टरेट हासिल की। सृजन और विधि की कोई दर्जन किताबें प्रकाशित।)