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नेतृत्व: अमृत-हलाहल में हो संतुलन

locationनई दिल्लीPublished: Oct 15, 2020 03:10:21 pm

Submitted by:

shailendra tiwari

चर्चाओं से असहमति या नकारात्मकता हो सकती है, ठीक वैसे ही जैसे मंथन के दौरान ‘हलाहल’ भी प्रकट हुआ था।

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प्रो. हिमांशु राय, निदेशक, आइआइएम इंदौर

भारतीय संस्कृति के असंख्य किस्से-कहानियां और किंवदंतियां बुद्धिमत्ता के ऐसे अनन्य उदाहरण पेश करते हैं, जो प्रबंधन सहित जीवन के विभिन्न पहलुओं पर लागू किए जा सकते हैं। ऐसी ही एक लोकप्रिय कथा है ‘अमृत मंथन’ (क्षीर सागर) की, जो संघर्षों को बेहतर तरीके से प्रबंधित करने के तरीके सुझाती है।

इंटरपर्सनल कॉन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट यानी अंतरवैयक्तिक संघर्ष प्रबंधन के संदर्भ में, ‘अमृत’ उस लक्ष्य या रुचि के समान है जिसके लिए दोनों दल, पक्ष (देवता) और प्रतिपक्ष (असुर) प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, लेकिन यह आपसी सहयोग से ही प्राप्त किया जा सकता है । ‘वासुकी’ वही प्रभावी संचार का माध्यम है जो ‘मंथन’ यानी बातचीत की सुविधा देता है,
जबकि ‘मंदार पर्वत’ सौदे के मूल नियमों को संदर्भित करता है जो कि ‘कूर्म’ द्वारा स्थापित पारस्परिक विश्वास, ईमानदारी और न्याय के अंतर्निहित सिद्धांतों पर आधारित हैं। जाहिर है कि लगातार होने वाली चर्चाओं से असहमति या नकारात्मकता हो सकती है, ठीक वैसे ही जैसे मंथन के दौरान ‘हलाहल’ भी प्रकट हुआ था। हालांकि, इस नकारात्मक तत्व को भी वैसे ही अपनाने और प्रबंधित करने की आवश्यकता है, जैसे भगवान शिव ने इसे स्वीकार और अनुग्रहपूर्वक ग्रहण किया था।

इस प्रकार, सभी पक्षों के सहयोग से न केवल लक्ष्य और संतुलित जीत प्राप्त होती है, बल्कि ‘देवी लक्ष्मी’ के रूप में समृद्धि और प्रगति भी होती है। यहां ‘समुद्र’ विचारों का सागर है, ‘मंथन की रस्सी’ भावनाएं हैं और ‘मंथन की छड़ी’ विवेक और नियंत्रण द्वारा समर्थित वह लक्ष्य है, जिसका प्रतीक ‘कूर्म’ है।
इस प्रक्रिया में अनुभव किया गया आत्म-संदेह और भय ‘हलाहल’ है, जिसे भगवान शिव की तरह स्वीकार किया जाना चाहिए और जिसका समाधान खोजा जाना चाहिए। अंतत: ‘अमृत’ को मन की संतुष्टि प्राप्त करने, प्रभावी विचारों को अपनाने और शांति पाने के रूप में समझा जा सकता है।

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