एनसीआरबी के आंकड़े गवाह हैं कि 2001 से 2015 तक 15 साल में 2,34,642 किसानों ने आत्महत्या की। आज किसान जिस अनिश्चिततापूर्ण स्थिति में जी रहा है, उन विकट परिस्थितियों में ऐसे कदम निश्चित रूप से सराहनीय हैं लेकिन हमें इसका दूसरा पहलू भी देखना-समझना होगा। क्या किसानों के कर्ज माफ होने भर से समस्या का समाधान हो रहा है? कर्जमाफी तो विदर्भ के किसानों की भी हुई, लेकिन क्या कर्ज की वजह से होने वाली आत्महत्याएं इसके बाद भी रुकीं?
कुछ दिन ही पुरानी बात है जब टमाटर या प्याज की फसल के भारी उत्पादन के बाद दाम गिरने से परेशान किसान या तो अपनी तैयार फसल को खुद जोत दे रहा था, या सडक़ों, मंडियों में अपनी उपज छोडक़र जा रहा था। खेती-बाड़ी की बढ़ती लागत, और खून-पसीने की मेहनत के बाद चौथाई कीमत भी नहीं मिलना इस देश के किसानों की जैसी नियति बन गया है। उचित समय पर खाद, गुणवत्तापूर्ण बीज, किफायती कीटनाशक की सहज उपलब्धता का संकट और मंडियों में व्यापारियों-दलालों के गठजोड़ के आगे किसान बेबस हो जाता है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ ले पाने वाले किसानों का आंकड़ा आज भी दस फीसदी से भी बहुत कम है। ऐसी स्थिति मेें 90 फीसदी से ज्यादा किसान बिचौलियों के हाथों अपनी उपज बेचने को मजबूर हैं। इन किसानों के हाथ उनकी फसल की लागत भी नहीं निकल पाती। पशुपालन और डेयरी के लिए भी ढांचागत सुविधाओं का अभाव यों है कि पचास फीसदी से अधिक दूध प्रोसेसिंग प्लांट तक पहुंच ही नहीं पाता। जोखिम कवर की हालत ये है कि कृषि बीमा योजना किसानों के लिए कम, कंपनियों के लिए ज्यादा फायदेमंद हो गई। इस योजना के तहत 2016-17 में २२,१८९ करोड़ रुपए प्रीमियम जमा किया गया लेकिन जब आपदा आई तो किसानों को बीमा भुगतान महज 12948 करोड़ रुपए ही रहा। यानी आधी रकम कंपनियों की तिजोरियों में! बीमा भुगतान के नाम पर दो रुपए, पांच रुपए के चेक तक देने का प्रहसन भी इसी योजना में होता रहा है।
सरकारों को कर्ज के चक्रव्यूह में किसानों के फंसने की वजहों का समाधान करना होगा। लागत, उत्पादन, मुनाफा और जोखिम कवर के सामान्य कारोबारी सिद्धांतों के आधार पर जब तक कृषि क्षेत्र में कोई बड़ी रणनीतिक पहल नहीं होगी, किसान सरकारों-साहूकारों की कृपा पर निर्भर रहेगा। किसी उद्यमी की तरह किसान के लिए भी कर्ज जानलेवा नहीं बल्कि उसके और उसके परिवार में समृद्धि और विकास का सबब बने, इसका रास्ता निकाला जाए।