scriptविधायिका में महिलाएं | Lok Sabha Election 2019: Women in legislature | Patrika News

विधायिका में महिलाएं

locationजयपुरPublished: Mar 14, 2019 08:47:54 pm

Submitted by:

dilip chaturvedi

दो क्षेत्रीय दलों ने राजनीति में महिलाओं को आगे लाने के लिए जो पहल की है, वह बताती है कि संविधान संशोधन से भी पहले जरूरत है दृढ़ इच्छाशक्ति की।

Lok Sabha Election 2019

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पश्चिम बंगाल और ओडिशा से महिलाओं के लिए उत्साहवर्धक खबरें मिली हैं। पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, जो तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख भी हैं, ने अगले माह होने वाले लोकसभा चुनावों में अपनी पार्टी के 41 प्रतिशत उम्मीदवार महिलाओं को बनाने की घोषणा की है तो ओडिशा के मुख्यमंत्री तथा बीजद प्रमुख नवीन पटनायक ने कहा है कि उनकी पार्टी के लोकसभा प्रत्याशियों में 33 प्रतिशत महिलाएं होंगी। इससे पहले हाल ही में कांग्रेस प्रमुख राहुल गांधी यह चुनावी वादा कर चुके हैं कि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वह संसद और विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण देने वाला कानून प्राथमिकता से पास कराएगी।

हालांकि उन्होंने लोकसभा चुनावों के लिए अपनी पार्टी के प्रत्याशियों में महिलाओं के लिए कोई निश्चित न्यूनतम संख्या का एलान नहीं किया है। कानून के बिना भी अपनी तरफ से महिलाओं को आरक्षण देकर दो क्षेत्रीय दलों ने दर्शाया है कि यदि विधायिका में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की मन में ईमानदारी हो तो किसी कानून का इंतजार किए बगैर भी राजनीतिक दल यह बदलाव ला सकते हैं जिसके बारे में माना जाता है कि इससे न केवल महिलाओं का सशक्तीकरण होगा, बल्कि समूचे समाज में बदलाव आएगा। आदर्श के रूप में सभी दल विधायिका में महिलाओं के आरक्षण का समर्थन करते हैं मगर जब भी उसे कानूनी जामा पहनाने का वक्त आता है तब कोई न कोई पेच फंस जाता है और विधान की प्रक्रिया वहीं थम जाती है।

विधायिका में महिला आरक्षण विधेयक पर वर्षों से गतिरोध बना हुआ है। यह विधेयक संविधान संशोधन के जरिए लोक सभा और राज्य विधान सभाओं में 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करने का प्रावधान करता है। हालांकि महिला आरक्षण के लिए १०८वें संविधान संशोधन विधेयक का राज्य सभा में 2010 में अनुमोदन हो चुका है, परंतु तत्कालीन यूपीए सरकार बहुमत के बावजूद उसे लोकसभा में पास करवाने में असफल रही थी और यह विधेयक अब भी वहीं अटका हुआ है। हमारे देश की कुल आबादी में महिलाएं 48 प्रतिशत हैं, मगर केंद्र और राज्य सरकारों में उनका प्रतिनिधित्व आबादी के अनुपात में बेहद कम है। मौजूदा 545 सदस्यों वाली लोकसभा में संख्या के हिसाब से मात्र 12 प्रतिशत महिलाएं हैं। इसके लिए हमारी परिस्थितियां भी जिम्मेवार हैं। हमारे सामाजिक ढांचे में राजनीतिक नेतृत्व के लिए बहुत कम महिलाएं आगे आ पाती हैं। पंचायतों तथा स्थानीय निकायों में महिलाओं को संविधान संशोधन के जरिए जब आरक्षण दिया गया, तब अधिकतर मामलों में तो उनके पति उनकी तरफ से काम करने लगे। लेकिन अब समय बदल रहा है। महिलाएं राजनीति में शिद्दत से अपना स्थान खोजने लगी हैं। लेकिन पुरुष राजनेताओं को इसमें अपने वर्चस्व को चुनौती लगती है।

महिला आरक्षण के कानून बनने की प्रक्रिया में यह मांग भी उठाई जाती है कि महिलाओं का सारा आरक्षण ऊंचे तबके तक सीमित न हो जाए, इसे सुनिश्चित करने के लिए इस कानून में भी अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों की स्त्रियों के लिए अलग से आरक्षण रखा जाए। विधायिका में महिलाओं के आरक्षण की कानूनी व्यवस्था करने में यह एक जटिल मुद्दा है। महिलाओं को विधायिका में आरक्षण की बात सबसे पहले 1975 में ‘टुवड्र्स इक्वैलिटी’ नाम की रिपोर्ट में आई थी हालांकि तब महिलाओं ने कहा था कि वे आरक्षण के रास्ते से नहीं, बल्कि अपने दम-खम पर राजनीति में आना चाहती हैं। दो क्षेत्रीय दलों तृणमूल कांग्रेस और बीजद ने पहल करके महिलाओं को आगे लाने की अपनी प्रतिबद्धता का परिचय दिया है और एक रास्ता सुझाया है कि जब तक लोकसभा में महिला आरक्षण के लिए संविधान संशोधन पर कोई सर्वानुमति नहीं बनती तब तक राजनीतिक दल खुद पहल कर सकते हैं। अर्थात कानून के बिना भी महिला आरक्षण का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। आशा की जानी चाहिए कि इसका सकारात्मक असर अन्य दलों पर भी पड़ेगा।

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