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लोकतंत्र का एक और उत्सव?

locationजयपुरPublished: Mar 25, 2019 04:24:40 pm

Submitted by:

dilip chaturvedi

संविधान में एक बार भी ‘राजनीतिक दल’ का प्रयोग नहीं किया गया, पर पहले दिन से ही हमारा लोकतंत्र पार्टी आधारित हो गया। लोग जब प्रतिनिधि चुनते हैं तो दरअसल राजनीतिक दल चुन रहे होते हैं।

lok sabha election

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मोहन गुरुस्वामी, नीति विश्लेषक

सत्रहवां लोकसभा चुनाव सिर पर है। एक बार फिर इसे लोकतंत्र का उत्सव बताया जा रहा है। सवाल उठता है यह उत्सव कैसे है और किसके लिए है? यहां मुझे महाभारत का एक प्रसंग याद आ रहा है। अठारह दिनों तक चले युद्ध में विजय के कई साल बाद युधिष्ठिर हस्तिनापुर में अश्वमेध यज्ञ करने का निर्णय लेते हैं। बड़े भव्य भोज की तैयारियां हो गईं, लेकिन इसी बीच एक दिलचस्प घटना घट गई। एक नेवला रसोई में जाने कहां से घुस आया और उसने भोजन पर हाथ साफ कर दिया। फिर वह जोर-जोर से हंसने लगा। उसका यह व्यवहार देखकर उसे पकड़ कर राजा के सामने ले जाया गया। राजा ने उसके उच्छृंखल व्यवहार का कारण पूछा, तो नेवले ने एक गरीब ब्राह्मण परिवार की कहानी सुनाई।

उक्त परिवार हफ्ते भर भूखा था। बड़ी मुश्किल से उसे कुछ अनाज मिला था। वे जैसे ही खाने पर बैठे, एक भिक्षुक दरवाजे पर आकर भोजन मांगने लगा। उसकी मांग बढ़ती गई, तो घर की मालकिन ने सारा खाना उसे दे दिया। बरतनों में एकाध दाने फिर भी बच रहे थे, जिसे नेवले ने चट कर दिया। उसके आश्चर्य की सीमा न रही, जब ये दाने निगलते ही नेवले की देह सोने में तब्दील होने लगी। चूंकि भोजन नगण्य था, इसलिए पूरी देह सोने की नहीं बन सकी। उस दिन के बाद से वह नेवला हर छोटे-बड़े घर में हर पूजा-यज्ञ में इस उम्मीद से जाने लगा कि कहीं तो उसे वैसा ही दैवीय भोजन प्राप्त होगा जो उसकी बची हुई देह को सोने की कर देगा। नेवले ने राजा से कहा द्ग ‘हे राजन, चूंकि तुम्हारा भोजन इतना दिव्य नहीं था कि मेरी अधूरी देह सोने की कर सके, इसलिए मैं हंसे जा रहा हूं।’

भारतीय लोकतंत्र के साथ आम भारतीयों का तजुर्बा भी कुछ ऐसा ही है। सत्तर साल से ज्यादा वक्त हुआ, जब आंखों पर स्टील की रिम का चश्मा लगाए और हाथ में लाठी लिए सूत के कपड़े में लिपटे एक कृशकाय व्यक्ति ने अपने दैवीय वरदान से हमें आधा सोने का कर दिया था। आजादी ने हमें समानता और स्वतंत्रता बख्शी और इन सबसे बढ़कर एक उम्मीद जगाई। तब से हम सोलह बार लोकतंत्र का उत्सव मना चुके, पर उम्मीदें अधूरी हैं। अरस्तू के अनुसार लोकतंत्र का बुनियादी सिद्धांत है स्वतंत्रता, क्योंकि एक लोकतंत्र में ही स्वतंत्रता साझा की जा सकती है। चूंकि हर कोई बराबर है, लिहाजा लोकतंत्र में संख्याएं अहम हो जाती हैं। हमारे यहां समानता का अर्थ वह है जो लोकतंत्र के दायरे में संभव है। हमें वे सारी स्वतंत्रताएं मुहैया हैं जिन्हें हम आजाद नागरिक होने के लिहाज से अनिवार्य मानते हैं। फिर सवाल उठता है कि हम अपनी सरकारों से नाखुश क्यों हैं? यह समझने के लिए पहले यह जानना जरूरी है कि हमने किस किस्म का लोकतंत्र अपने यहां विकसित किया है।

हमारी मूल मंशा एक ऐसा संकर लोकतंत्र बनाने की थी, जहां स्थानीय स्तर पर प्रत्यक्ष लोकतंत्र और क्षेत्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर प्रातिनिधिक लोकतंत्र की परिकल्पना हो। हालांकि पंचायती राज व्यवस्था के सामने स्थानीय परंपरागत संस्थाएं जैसे कि खाप, जाति सभा और गांव सभा कम प्रभावी होती गई हैं, लेकिन उनका अस्तित्व अभी भी कायम है। शहरों में भी स्थानीय सरकारें जड़ें नहीं जमा सकी हैं। वेतन का वितरण इसे बयां करता है द्ग वेतन और पेंशन पर सालाना करीब पांच लाख करोड़ रुपए के राष्ट्रीय व्यय में केंद्र सरकार 42 फीसदी, राज्य सरकारें 47 फीसदी और सभी स्थानीय सरकारें मिलकर 11 फीसदी का योगदान देती हैं।

संविधान में एक बार भी ‘राजनीतिक दल’ का प्रयोग नहीं किया गया, पर पहले दिन से ही हमारा लोकतंत्र पार्टी आधारित हो गया। लोग जब प्रतिनिधि चुनते हैं तो दरअसल राजनीतिक दल चुन रहे होते हैं। और अब तो हम एक सर्वोच्च नेता को चुनने लगे हैं। यदि राजनीतिक दल संवैधानिक और जनतांत्रिक तरीके से काम न करें तो नेतृत्व का कुलीन वर्ग के हाथों में जाना अपरिहार्य हो जाता है, जैसा कि आज सभी दलों में देखा जा रहा है। इनमें ऐसे धड़े हैं जो साझा क्षेत्र, धर्म या जाति के आधार पर एक साथ आ जाते हैं। साथ आने की प्रेरणा के पीछे इन तीनों में से कोई भी कारक प्राथमिक हो सकता है।

दुनिया के कई स्थापित लोकतंत्रों में लोकतांत्रिक व्यवस्था का संक्रमण देखा गया है। हमारे तंत्र का संक्रमण जिस तंत्र में हुआ, उसकी तुलना महान माली साम्राज्य के कुरुकन फूगा के लोकतंत्र से की जा सकती है, जहां गब्बारा नामक असेंबली में घरानों का प्रतिनिधित्व होता था। उत्तर-मगध काल में लिच्छवी लोकतंत्र का ढांचा भी ऐसा ही था। घरानों के लोकतंत्र में सत्ता मु_ी भर लोगों के हाथों में केंद्रित होती है, तब मुद्दे धुंधले पड़ जाते हैं और सारी उत्प्रेरक शक्ति केवल सत्ता को कब्जाने की होती है। विडंबना है कि ज्यादातर सामाजिक वैज्ञानिक भारत में इस परिघटना में लोकतंत्र की नाकामी को देख पाने में अक्षम रहे हैं। इसीलिए चे ग्वेरा ने 1961 में उरूग्वे में कहा था द्ग ‘लोकतंत्र महज चुनावों से नहीं टिक सकता जो कि करीब-करीब हमेशा अवास्तविक होते हैं और अमीर भूस्वामियों व पेशेवर सियासतदानों द्वारा प्रबंधित होते हैं।’

संसद के भीतर सार्थक व विवेकपूर्ण विमर्शों का अभाव हमारे लोकतंत्र की बदहाली का एक अक्स है। इस मामले में कोई भी राजनीतिक दल दूध का धुला नहीं है। हमारे इर्द-गिर्द हर ओर तनाव व्याप्त है। एक दिन भी नहीं बीतता कि लंबे समय से ध्यान चाह रही कोई मांग, आक्रोश के रूप में सामने न आती हो, लोकतंत्र की नाव में लगा पाल तूफानी हवाओं से तार-तार न होता हो जिसका काम कभी जहाज को समृद्धि और राष्ट्रीय एकता की ओर ले जाना था।

तमाम आर्थिक रुझान यही दिखाते हैं कि मुट्ठी भर लोगों के पास धन-दौलत इकट्ठा होती जा रही है और नीतियों के लाभ भी उन्हें ही मिल रहे हैं। हमारे यहां मौजूद आर्थिक असमानता दुनिया में न सिर्फ सबसे ज्यादा है बल्कि क्षेत्रीय असंतुलन से जुड़े सूचकांकों की सेहत भी बदतर है। हमारी ज्यादातर आबादी आज भी मानसून के साये में जी रही है। जब तक सरकारें बहुसंख्यक वर्ग की चिंताओं और चाहतों पर ध्यान नहीं देंगी, हम लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप हासिल नहीं कर सकेंगे और उस नेवले की तरह एक उत्सव से दूसरे उत्सव की ओर बढ़ते रहेंगे, इस चाह में कि पूरी तरह सोने का हो जाएं।

(लेखक, सामाजिक, आर्थिक एवं सुरक्षा विषयों के टिप्पणीकार। कई प्रतिष्ठित संस्थानों में अहम पदों पर रहे।)

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