कभी मंच साझा करने से भी गुरेज करने वाले जेडीयू प्रमुख नीतीश कुमार अब पूरी तरह मोदीमय हो चुके हैं। राज्य को विशेष पैकेज (राज्यहित) के नाम पर राजग का साथ छोड़ कर अपनी राजनीतिक चमक बरकरार रखने की आस लगाए टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडू का हश्र सहयोगी दलों के लिए एक नसीहत की तरह है जो मोदी की राष्ट्रवादी राजनीति में अब उड़ चुके हैं। किसी भी देश में बहुसंख्यक जमात की धार्मिक चेतना और राष्ट्रीय अस्मिता एकाकार हो जाए और उसका नेतृत्व मजबूत हाथों में आ जाए तो चुनाव नतीजों में अगर-मगर की ज्यादा गुंजाइश नहीं रह जाती। भाजपा इसी दिशा में आगे बढ़ रही है। विकास के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के साथ-साथ मोदी सरकार जनता को यह अहसास कराने में सफल रही कि ‘राष्ट्रहित’ में कठोर निर्णय करने की क्षमता किसी अन्य सरकार में नहीं होगी। नतीजों से पता चलता है कि मोदी सरकार को घेरने के तमाम प्रयास तो हुए पर विपक्षी एकजुटता न होने के कारण जमीन पर उसका कोई असर नहीं हुआ। कांग्रेस के उठाए मुद्दों को अन्य सहयोगी दल आगे बढ़ाते नजर नहीं आए।
आरएसएस का संयोजन और भाजपा की सांगठनिक मजबूती का मुकाबला करने की क्षमता भी किसी विपक्षी दल में नहीं दिखी। हालांकि इस बार कांग्रेस पहले की तुलना में ज्यादा मजबूती से लड़ती रही और बेरोजगारी और सामाजिक न्याय जैसे जनता के जरूरी मुद्दों पर सरकार को घेरने का मौका हाथ से नहीं जाने दिया। बेरोजगारों के बैंक खातों में सालाना 72 हजार रुपए देने वाली ‘न्याय’ जैसी योजनाएं उछालकर गरीबों को लुभाने के प्रयास भी खूब किए। ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ के मुकाबले ‘भारतीय राष्ट्रवाद’ को खड़ा करने का भी कम प्रयास नहीं किया। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी यह कहते रहे कि यह चुनाव दो विचारधाराओं की लड़ाई है, पर जनता को अपने पक्ष में नहीं कर सके। इसकी दो वजहें हैं। एक तो यह कि किसी नए संदेश को जनता तक ले जाने में कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा काफी कमजोर है और दूसरा यह कि विचारधारा का सुविधा से इस्तेमाल करना कांग्रेस का इतिहास है। लेकिन अगले चुनावी मैदान में कांग्रेस के 70 साल का इतिहास भाजपा सरकार के बचाव में नहीं होगा।