चुनाव की घोषणा से पहले ही तमाम ओपिनियन पोल देश के मूड को भांपने का दावा कर चुके हैं। लेकिन क्या चंद हजार लोगों से बातचीत करके देश के मिजाज को परखा जा सकता है? जवाब है शायद ‘नहीं’। दुनिया में सर्वाधिक मतदाताओं वाला यह देश विविधताओं वाला है। भौगोलिक लिहाज से भी और राजनीतिक दृष्टि से भी।
‘पत्रिका’ ने नए साल की शुरुआत के साथ ही देश के राजनीतिक थर्मामीटर को मापने का काम शुरू कर दिया था। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और गोवा से लेकर गुवाहाटी तक हमारे वरिष्ठ साथियों की टीम निकल पड़ी थी, राजनीतिक नब्ज को टटोलने के लिए। राज्यों में उभर रही राजनीतिक तस्वीर को समझने का प्रयास किया। स्थानीय मुद्दों को भी समझा और बनते-बिगड़ते समीकरणों को भी।
पिछले चुनाव के बाद से राजनीति ने भी करवट बदली है। पिछले चुनाव में साथ खड़े दोस्त अब विपक्षी पाले में दिखाई दिए तो पिछले चुनाव में आमने-सामने खड़े दल एक-दूसरे का हाथ थामे भी नजर आए। बिहार में नीतीश कुमार का जनता दल (यू) पिछले चुनाव में भाजपा के खिलाफ लड़ा था, तो इस बार उसके साथ खड़ा है। आंध्रप्रदेश में पिछली बार चंद्रबाबू नायडू की तेलुगुदेशम भाजपा के साथ थी, तो इस बार वह कांग्रेस से तालमेल के प्रयासों में नजर आई।
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में बीते ढाई दशक से एक-दूसरे की कट्टर विरोधी रही सपा और बसपा इस बार एक होकर भाजपा के खिलाफ ताल ठोकती नजर आईं। तमिलनाडु में भाजपा इस बार अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन कर चुकी है। पिछले दो महीनों में ‘पत्रिका’ ने छोटे-बड़े राज्यों में उभर रहे राजनीतिक समीकरणों से पाठकों को रूबरू कराया। पूरे देश की राजनीतिक तस्वीर का आकलन किया तो साफ नजर आया कि हर चुनाव की तरह ये चुनाव भी नए तरीके का होने वाला है।
भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए जहां सत्ता बचाने के लिए हरसंभव प्रयासों में जुटा है, वहीं विपक्ष अब तक एकजुट नहीं हो पाया है। भाजपा महाराष्ट्र में शिवसेना, बिहार में जद (यू), तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक और पंजाब में अकाली दल के साथ सीटों के तालमेल को निपटा चुकी है। वहीं कांग्रेस यूपीए में शामिल अपने सहयोगियों एनसीपी और राजद के साथ तालमेल की कशमकश में जुटी है। उत्तर प्रदेश में भी छोटे दलों के साथ तालमेल की सहमति नहीं बन पाई है।
चुनाव की घोषणा के बाद यानी नामांकन दाखिल करने की आखिरी तारीख तक तालमेल की कवायद यों ही चलती रहने वाली है। ‘पत्रिका’ टीम ने राजनीतिक आकलन के दौरान मुद्दों को खंगालने की कोशिश की। सबसे बड़ा मुद्दा बेरोजगारी का सामने आया। आतंकवाद से निपटने की चुनौती भी बड़े मुद्दे के रूप में सामने आई। किसानों की समस्याएं हर इलाके में सुनने को मिली तो नोटबंदी से छोटे व्यापारियों के सामने आई परेशानियों का जिक्र भी सब जगह सुनने को मिला। यही मुद्दे इन चुनावों में भी देश की तकदीर तय करने वाले हैं।
आने वाले ढाई महीनों में देश के सामने दूसरे बड़े मुद्दे भी सामने आ सकते हैं। नए समीकरण भी देखने को मिल सकते हैं। देश में हुए हर चुनाव पिछले चुनावों से अलग रहते आए हैं। अनेक मौकों पर मतदाता देश के राजनीतिक पंडितों को चौंका चुका है। ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल को धराशायी होते हुए भी देखा गया है। देश का मतदाता परिपक्व है, लिहाजा वह सभी दलों और प्रत्याशियों को पहले तोलता है, फिर अपना मानस बनाता है।