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चुनावी चौसर पर अयोध्या

फिर से राममंदिर की तरफ भाजपा नीत केंद्र सरकार का मुडऩा यही दर्शाता है कि लोगों का मत हासिल करने के लिए उसे आस्था व भावना का सहारा लेना पड़ रहा है।

जयपुरJan 31, 2019 / 07:52 pm

dilip chaturvedi

Ayodhya and election

बार-बार यह कहा जाता है कि राम जन्मभूमि चुनावी मुद्दा नहीं है मगर जब भी आम चुनाव आते हैं यही मुद्दा मुखर हो कर सबसे ऊपर आ जाता है। लोकसभा चुनाव सिर पर हैं और अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए जमीन के विवाद को फिर हवा दी जा रही है। मामला वर्ष 1949 से अदालतों में चल रहा है। अब यह सर्वोच्च अदालत में अंतिम निर्णय के लिए लगा हुआ है जहां इसकी सुनवाई कब पूरी होगी कोई नहीं जानता। नियमित सुनवाई शुरू हो, उससे पहले ही कोई न कोई नया पेच उसमें फंसा दिया जाता है। पहले तो सर्वोच्च अदालत ने खुद ही सुनवाई की प्रक्रिया को नया मोड़ देते हुए उसकी सुनवाई के लिए संवैधानिक पीठ बना दी। यह पीठ सुनवाई शुरू करे, उससे पहले अब सरकार ने एक अर्जी देकर अदालत से कहा है कि मुकदमे में फंसी ऐसी भूमि जिस पर कोई विवाद नहीं है उसे राम जन्मभूमि न्यास (मंदिर ट्रस्ट) को दे दिया जाए। सरकार को यह अर्जी इसलिए देनी पड़ी है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का सारे मामले में यथा स्थिति बनाए रखने का आदेश है। यह किसी से छुपा नहीं है कि आने वाले चुनावों से पहले बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार भारी दबाव में है। एक ओर हाल ही हुए विधानसभा चुनावों के परिणाम हैं, तो दूसरी ओर केंद्र सरकार के पांच वर्षों के कार्यकाल की उपलब्धियों का असर जनता में वैसा नजर नहीं आ रहा, जैसा पार्टी के कर्ता-धर्ता चाह रहे थे।

सर्वोच्च अदालत में लगाई गई अर्जी सभी को चुनावी खेल में खेला गया एक दांव नजर आ रहा है। यदि अदालत सरकार की अर्जी मान लेती है और गैर विवादित भूमि पर से यथास्थिति की पाबंदी हटा देती है तो उस भूमि पर मंदिर ट्रस्ट के जरिए राममंदिर का निर्माण शुरू करवा कर सरकार यह कह सकेगी कि उसने यह कर दिखाया है। लेकिन सरकार के इस फैसले पर इसलिए सवाल उठेंगे कि यह उपाय चुनावों के सिर पर आने पर ही क्यों सूझा? इतने साल आपके पास थे, तब आपने ऐसा क्यों नहीं किया, तब तो सरकार देश को विकास की नई ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए अपनी पीठ थपथपाती रही। फिर से राममंदिर की तरफ उसका मुडऩा यही दर्शाता है कि लोगों का मत हासिल करने के लिए आस्था और भावना का सहारा लेना पड़ रहा है। देखना है कि अदालत सरकार की अर्जी सीधे-सीधे मान लेती है या उस पर सभी पक्षकारों को नोटिस जारी होंगे, उनको जवाब देने के लिए समय दिया जाएगा और फिर उनका जवाब सुना जाएगा और उस पर बहस होगी। अगर ऐसा होता है तो मूल मुद्दे पर सुनवाई फिर रुक जाएगी और यह नई सुनवाई शुरू हो जाएगी। अदालत में जो मुकदमा चल रहा है, वह दीवानी है, जिसमें सिर्फ जमीन के मालिकाना हक पर फैसला आना है।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तो सबको संतुष्ट करने वाला फैसला देते हुए कह दिया था कि अयोध्या की 2.77 एकड़ जमीन सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही आखाड़ा और मंदिर ट्रस्ट के बीच बराबर बांट दी जाए। अब सरकार चाहती है कि 1993 में जिस 67 एकड़ अविवादित भूमि का अधिग्रहण किया गया था, उसमें लगभग 42 एकड़ भूमि विश्व हिन्दू परिषद के मंदिर न्यास की थी, जो वापस न्यास को दे दी जाए। चुनावी सियासत में आस्था का यह नया दांव लगाया गया है।

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