सर्वोच्च अदालत में लगाई गई अर्जी सभी को चुनावी खेल में खेला गया एक दांव नजर आ रहा है। यदि अदालत सरकार की अर्जी मान लेती है और गैर विवादित भूमि पर से यथास्थिति की पाबंदी हटा देती है तो उस भूमि पर मंदिर ट्रस्ट के जरिए राममंदिर का निर्माण शुरू करवा कर सरकार यह कह सकेगी कि उसने यह कर दिखाया है। लेकिन सरकार के इस फैसले पर इसलिए सवाल उठेंगे कि यह उपाय चुनावों के सिर पर आने पर ही क्यों सूझा? इतने साल आपके पास थे, तब आपने ऐसा क्यों नहीं किया, तब तो सरकार देश को विकास की नई ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए अपनी पीठ थपथपाती रही। फिर से राममंदिर की तरफ उसका मुडऩा यही दर्शाता है कि लोगों का मत हासिल करने के लिए आस्था और भावना का सहारा लेना पड़ रहा है। देखना है कि अदालत सरकार की अर्जी सीधे-सीधे मान लेती है या उस पर सभी पक्षकारों को नोटिस जारी होंगे, उनको जवाब देने के लिए समय दिया जाएगा और फिर उनका जवाब सुना जाएगा और उस पर बहस होगी। अगर ऐसा होता है तो मूल मुद्दे पर सुनवाई फिर रुक जाएगी और यह नई सुनवाई शुरू हो जाएगी। अदालत में जो मुकदमा चल रहा है, वह दीवानी है, जिसमें सिर्फ जमीन के मालिकाना हक पर फैसला आना है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तो सबको संतुष्ट करने वाला फैसला देते हुए कह दिया था कि अयोध्या की 2.77 एकड़ जमीन सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही आखाड़ा और मंदिर ट्रस्ट के बीच बराबर बांट दी जाए। अब सरकार चाहती है कि 1993 में जिस 67 एकड़ अविवादित भूमि का अधिग्रहण किया गया था, उसमें लगभग 42 एकड़ भूमि विश्व हिन्दू परिषद के मंदिर न्यास की थी, जो वापस न्यास को दे दी जाए। चुनावी सियासत में आस्था का यह नया दांव लगाया गया है।