अफसोस की बात यह भी कि, मौजूदा दौर में अलग अलग राज्यों में इस पद को सुशोभित कर रहे लोकायुक्त संगठनों में से गर्व करने लायक कथ्य और तथ्य भी नहीं। सरकारें लोकायुक्तों से नजरे इनायत चाहती हैं, उधर लोकायुक्तों को ज्यादा अधिकार की दरकार है। टीएन शेषन ने उपलब्ध अधिकारों के बीच चुनाव आयोग को जो धार दी, वैसे जज्बे का इंतजार इस संस्था को है।
मध्यप्रदेश में लोकायुक्त के पास विशेष पुलिस संगठन है तो राजस्थान और छत्तीसगढ़ इस अधिकार से हीन। लेकिन इन राज्यों में बीते दस साल में लोकायुक्त संगठन ने कितने बड़े भ्रष्टाचारियों की घेराबंदी की, या किन बड़े मसलों पर स्वत: संज्ञान लेकर नजीर पेश की? आखिर क्या वजह है कि 2013 के केंद्रीय कानून में लोकायुक्त का कार्यकाल पांच साल तय होने के बावजूद राज्यों में इस भावना का पालन नहीं होता। राजस्थान मेंलोकायुक्त का कार्यकाल बढ़ाकर आठ साल और मध्यप्रदेश में सात साल किया जा चुका है।
इस तरह सरकारों के प्रेम और बदले में कृपादृष्टि की आकांक्षा के बीच ऐसी संस्थाओं को हैसियत का अहसास भी कराया जाता है। इनकी सिफारिशों पर कार्रवाई की सरकारों को चिंता नहीं होती। राजस्थान में खान घोटाला हो मध्यप्रदेश में ऐसे ही अन्य मामलों में जांच की सिफारिशें, सरकारें रद्दी की टोकरी में पटक देती हैं। विधानसभा पटल पर रखी गई लोकायुक्त की रिपोट्र्स पर विपक्ष भी गूंगा बना रहता है। ऐसे हालात में अब सारा दारोमदार खुद लोकायुक्तों पर ही है, कि वे अपनी शक्ति का अहसास कराकर इस संस्था की साख बचाएं।