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अमरीकी चीयरलीडर मामले में कोर्ट के फैसले पर निगाहें

locationनई दिल्लीPublished: May 12, 2021 10:06:08 am

सोशल मीडिया व स्मार्टफोन के बढ़ते इस्तेमाल और ऑनलाइन शिक्षा के दौर में स्कूल परिसर के भीतर और बाहर अनुशासनात्मक कार्रवाई पर बहस।छात्र अनुशासन बनाम अभिव्यक्ति की आजादी का एक पेचीदा मुद्दा ।

बै्रंडी लैवी जूनियर चीयरलीडर

बै्रंडी लैवी जूनियर चीयरलीडर

जस्टिन ड्राइवर

आज अमरीका के पेनसिल्वेनिया के एक स्कूल की पूर्व छात्रा द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार संबंधी मामले पर सबकी निगाहें टिकी हैं। यहां एक और सवाल अहम है कि क्या स्कूल प्रशासन छात्रों की स्कूल परिसर के बाहर की गतिविधियों को नियंत्रित कर सकता है। मामला वर्ष 2017 का है। हुआ यों कि पेनसिल्वेनिया के एक स्कूल में बै्रंडी लैवी नाम की एक जूनियर चीयरलीडर को स्कूल की टीम में नहीं चुना गया। फैसले से खिन्न लैवी ने साप्ताहिक अवकाश के दिन ऑनलाइन प्लेटफॉर्म स्नैपचैट पर इसके खिलाफ प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए अपशब्दों का इस्तेमाल किया और आपत्तिजनक फोटो व संदेश पोस्ट कर दिया। जैसे ही एक अन्य छात्रा ने यह पोस्ट पढ़ी, उसने अपनी मां को इसके बारे में बताया जो कि चीयर कोच हैं। उसके बाद लैवी पर साल की शेष अवधि के लिए चीयरलीडिंग पर बैन लगा दिया गया। उस पर टीम के नियमों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया गया, जिसके तहत स्कूल, कोच और टीम का आदर करना अनिवार्य है और यह भी कि छात्र अशिष्ट शब्दों व अनुचित भाव-भंगिमा से परहेज करें और चीयरलीडिंग व कोच के बारे में इंटरनेट पर गलत जानकारी न डालें।

मामले के चलते अमेरिकन सिविल लिबर्टी यूनियन (एसीएलयू) ने लैवी के माता-पिता की सहायता की और फेडरल कोर्ट में उसके स्कूल के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा दिया। उनका आरोप था कि स्कूल ने ब्रैडी लैवी के अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का हनन किया है। चूंकि मामला स्कूली छात्रा और स्कूल से जुड़ा है, इसलिए एक सवाल और उठता है कि अगली पीढ़ी के नागरिकों के व्यक्तित्व निर्माण में शिक्षण संस्थानों की भूमिका क्या होनी चाहिए? ऐसा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट पहली बार ऐसे सवालों का सामना कर रहा है 1969 में ऐसे ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जॉन और मैरी बैथ टिंकर के संवैधानिक अधिकारों का हवाला देते हुए उन्हें दोषमुक्त करार दिया था। सोशल मीडिया और स्मार्टफोन के बढ़ते इस्तेमाल के चलते आज स्कूल और समाज के समक्ष नई चुनौतियां हैं, खास तौर पर असभ्य अभिव्यक्ति के मामले बढ़ते नजर आ रहे हैं।

इसी मामले में एक फेडरल कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि स्कूल ने लैवी की अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकारों का हनन किया है। अब अगर सुप्रीम कोर्ट में लैवी के खिलाफ फैसला सुनाया जाता है तो यह देश के छात्रों के लिए अच्छी नागरिकता का सबक सिखाने जैसा होगा। यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि आज डिजिटल युग में स्कूलों को इतना अधिकार मिलना ही चाहिए कि वे ‘स्कूलहाउस गेट’ के बाहर की गई आपत्तिजनक अभिव्यक्ति के लिए छात्र-छात्राओं को दंडित कर सकें। आखिरकार, साइबर बुलीइंग और छात्रों, स्कूलों व शिक्षकों को हिंसक धमकियां काफी गंभीर समस्या है। परन्तु यह भी सच है कि मौजूदा कानूनों में पहले ही अधिकारियों को बहुत से नुकसानदेह अधिकार मिले हुए हैं। जाहिर है ‘प्रथम संशोधन’ (अमरीकी संविधान) के तहत छात्रों को मिलने वाला संरक्षण सार्वजनिक स्थलों पर दिया जाए तो बात अलग है, पर स्कूल में यह अनुशासन के खिलाफ माना जाए। युवा आम तौर पर अभिव्यक्ति की आजादी के पक्षधर हैं, फिर चाहे मामले स्कूल से संबंधित ही क्यों न हों। अगर कोर्ट लैवी पर प्रतिबंध को उचित ठहराता है तो पाठ्येतर गतिविधियों पर और ज्यादा असर पड़ सकता है, क्योंकि लैवी ने न केवल खेल को, बल्कि स्कूल को भी अपमानित किया था। निस्संदेह अतिउत्साही प्रिंसिपल यही कहेंगे कि ऐसी अपमानजनक टिप्पणियां भले ही स्कूल से बाहर क्यों न की जाएं, शैक्षणिक गतिविधियों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा ही। उम्मीद है कोर्ट जोखिम भरी राह पर पहला कदम भी नहीं उठाएगी।
(लेखक येल लॉ स्कूल के प्रोफेसर हैं)
द वाशिंगटन पोस्ट

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