यह वही चुनाव आयोग है, जिसने 2 मई को नतीजे आने के बाद विजय जुलूस निकालने पर रोक लगाई है। अच्छा फैसला है, लेकिन क्या पहले चुनावी रैलियों का रेला चुनाव आयोग को नहीं दिख रहा था? क्या उसके पास राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के खिलाफ कार्रवाई का अधिकार नहीं था? अब छवि की चिंता हुई, तो वह भीड़ के लिए राजनीतिक दलों को जिम्मेदार ठहराने में जुटा है। सवाल सिर्फ चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं का ही नहीं है। मीडिया और खास तौर से सोशल मीडिया के माध्यम से कोरोना को लेकर नागरिक अपनी पीड़ा व बदइंतजामी को साझा कर रहे हैं, तो भी सरकारों को छवि की चिंता सता रही है।
सुप्रीम कोर्ट ने सही ही कहा है कि कोविड-19 को लेकर सूचना प्रसार पर कोई रोक नहीं होनी चाहिए। हां, जिम्मेदार नागरिक के रूप में हमारा कत्र्तव्य है कि सोशल मीडिया पर भ्रामक व डराने वाली सूचनाओं के प्रसार से बचें। राष्ट्रीय आपदा के ऐसे मौके पर जहां एकजुटता की जरूरत हो, वहां राजनीति होती दिखे तो फिर जनता को सवाल करने का हक होना ही चाहिए। सरकारों को कोरोना संक्रमितों के उपचार में दवाइयों से लेकर ऑक्सीजन और जीवन रक्षक दवाइयों की उपलब्धता पर आए संकट का समाधान निकालना ही चाहिए। अभी तो अस्पतालों में भी लपके घूम रहे हैं, जो रेमडेसिविर जैसे इंजेक्शन की कालाबाजारी में जुटे हैं। ऑक्सीजन न मिलने से संक्रमितोंं की मौत की खबरें भी कम नहीं हंै। अदालतों की लताड़ का भी सरकारों पर कोई असर नहीं पड़ रहा।
कई राज्य 1 मई से 18 वर्ष से अधिक आयु के सभी लोगों को टीका नहीं लगा पाएंगे, जबकि अभी सबसे बड़ी जरूरत टीकाकरण का दायरा बढ़ाने की है। अभी तो टीकाकरण के प्रबंधन को लेकर भी बड़ी चुनौती सामने आने वाली है। टीकाकरण में भी राजनीति न हो तो बेहतर है। कोरोना की पहली लहर से सबक न सीखने की सजा हम भुगत रहे हैं। दूसरी लहर में भी छवि की ही चिंता करते रहे, तो तीसरी लहर का संकट बड़ा होगा।