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निर्बन्ध : दिग्विजय साधना

Published: Nov 05, 2016 12:51:00 am

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संसार का सबसे बड़ा सुख यह भोग ही तो है। उसको छोड़ किसी काल्पनिक ईश्वर के पीछे दौडऩा और इस बात से भयभीत रहना कि मृत्यु के पश्चात् क्या होगा, कर्ण की समझ में नहीं आता। वह नहीं मानता कि ईश्वर नामक कोई अस्तित्व भी है।

संसार का सबसे बड़ा सुख यह भोग ही तो है। उसको छोड़ किसी काल्पनिक ईश्वर के पीछे दौडऩा और इस बात से भयभीत रहना कि मृत्यु के पश्चात् क्या होगा, कर्ण की समझ में नहीं आता। वह नहीं मानता कि ईश्वर नामक कोई अस्तित्व भी है। 
वह नहीं मानता कि मृत्यु के पश्चात् फिर कोई जन्म होता है। वह मानता है कि सृष्टि स्वत: हुई है और यह जीवन ही एकमात्र जीवन है। मृत्यु के पश्चात क्या होता है, इसे किसने देखा है। जीवन की उपलब्धियों से सबका परिचय है। भुजाओं में बल हो तो पुरुष अपनी सत्ता स्थापित करे। अपने लिए धन वैभव एकत्रित करे। संसार की श्रेष्ठ नारियों के भोग का सुख प्राप्त करे। 
ये पांडव जाने किस मृगतृष्णा में फंसे किसी काल्पनिक ईश्वर, धर्म और मोक्ष के लिए तड़प रहे हैं। कर्ण ऐसा जीवन नहीं चाहता। उसकी साधना है, दिग्विजय की। संसार में सबसे बड़ा धनुर्धर बनने की। संसार को अपने चरणों पर झुकाने की। उसे निर्धनों के साथ बैठना अच्छा नहीं लगता। न उसे साधारणजन अच्छे लगते हैं, न वह साधारण बन कर रहना चाहता है। वैभव के परिवेश में उसका मन उल्लसित रहता है। 
शायद इसीलिए पांडव पहले दिन से उसे अच्छे नहीं लगे। वे आए थे तो उन्होंने आरण्यकों के से वस्त्र पहन रखे थे। न उनके केश राजकुमारों के समान संवारे गए थे और न ही उनके शरीर पर राजसी वेशभूषा थी। शरीर पर आभूषण तो थे ही नहीं। पांडवों के हस्तिनापुर आने तक कर्ण ही सबसे बलवान ब्रह्मचारी था हस्तिनापुर के गुरुकुल का। कर्ण ही सबसे योग्य धनुर्धर था। 
पांडवों ने क्रमश: उसका एक-एक पद छीनना आरंभ कर दिया था। फिर वे लोग उसके सपनों के राजकुमार दुर्योधन से उसका सारा वैभव और अधिकार छीन रहे थे। वे न भी छीन रहे हों, किंतु सत्य यही था कि उनके कारण दुर्योधन का महत्व कम हो रहा था। भीम तो प्रत्येक बात में चुनौती देता ही रहता था, उस बूढ़े भीष्म की भी मति भ्रष्ट हो गई थी। 
नरेंद्र कोहली

के प्रसिद्ध उपन्यास से 


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