जनतांत्रिक व्यवस्था का महावीर के अन्त:करण पर इतना प्रभाव रहा कि- ‘मित्ती सव्व भूतेषु’ मेरे सब मित्र है, की उद्घोषणा ने जाति, वर्ग, वर्ण, लिंग, भाषा, क्षेत्र आदि सभी भेद की दीवारों को एक बार में ही ध्वस्त कर दिया। ईश्वर का भी जनतंत्रीकरण कर, कर्मेण पुरुषार्थ में विश्वास व्यक्त किया। कोई भी किसी के लिए शरण बन नहीं सकता। सबका अपना कर्म है और उसका फल है, जो समय में रुपायित होता है। अन्य में आश्रय खोजना दुर्बलता है, निजत्व को खो देना है। जो ‘मैं’ हूं वही मेरा सत्य है। स्वयम् को जो होना है, उसके लिए संकल्पबद्ध होना पुरुषार्थ का प्रथम चरण है। मंजिल आपने आप निकट आती जाती है। महावीर अपने में ‘मैं’ को भी अन्य मानते हैं। ‘मैं’ क्या है, किसी भी भाषा का अर्थ-कोष इसकी परिभाषा नहीं दे सका। कथन में ‘मेरा’ ही आता है, जो होता नहीं है। मैं अपने जन्म-मरण को भी नहीं देख पाता। जनतंत्र के प्रमुख तत्व स्वतंत्रता, समानता, सह-अस्तित्व और सहिष्णुता है। इन सबका अविनाभावी सम्बंध है।
महावीर ने आचार में अहिंसा तथा विचार में अनेकान्त का दर्शन दिया, यही लोकतंत्र की आधारशिला है। महावीर शाश्वत ध्रुव तत्व स्वतंत्रता को मानते हैं। समानता व सह-अस्तित्व में अधिकार के साथ आदर की भावना निहित है। सह-अस्तित्व है। इसी से स्व-अस्तित्व है। इतिहास में पहली घटना थी जब ***** भेद तोड़ कर महावीर ने दासी बनाई हुई चंदन बाला को दीक्षा दी और मुक्तिधारा से जोड़ते हुए श्रमणी संघ की अधिष्ठाता के पद से अभिषिक्त किया। वह समय था, जब नारी सम्पत्ति की तरह विक्रय के लिए होकर उपभोग की वस्तु बनाई हुई थी। महावीर ने चातुर्याम धर्म में ब्रह्मचर्य को जोडक़र नारी को स्वतंत्रता प्रदान की। महावीर के समूचे जीवन-दर्शन में व्यक्ति स्वातंत्र्य सर्वोपरि है। प्रत्येक का अपना आभामण्डल है। हर आत्मा में विकास की अनंत संभावनाए हैं। पुरुषार्थ से उसे चेतना में रूपान्तरित करने की अतिशय सामथ्र्य है।