अलग-अलग कारणों से पूर्वोत्तर बीते दशकों में रह-रहकर सुलगता रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से छिटपुट वारदातों को छोडक़र आमतौर पर शांति रहती आई है। मणिपुर में हिंसा का नया दौर राज्य के बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के खिलाफ निकाली गई रैली के दौरान भडक़ी हिंसा के बाद शुरू हुआ। मैतेई समुदाय जहां अपनी मांग पर अड़ा हुआ है, वहीं राज्य की जनजाति में शामिल समुदाय इसका विरोध कर रहे हैं। दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं। पिछले महीने मणिपुर उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने पर विचार करने को कहा तो मामला गर्मा गया। तब से लेकर अब तक वहां हालात संभाले नहीं संभल रहे। देश के गृहमंत्री अमित शाह इन दिनों मणिपुर दौरे पर हैं। यह बात भी सही है कि राज्य में हो रही हिंसा से अकेले मणिपुर सरकार नहीं निपट सकती। केंद्र को चाहिए कि वह राज्य में शांति स्थापित करे और हिंसा के डर सेे घर छोड़ भागे लोगों की वापसी भी सुनिश्चित करे। राज्य के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह के कंधों पर इस समय बड़ी जिम्मेदारी है। उन्हें अपने बयानों में संयम रखने की जरूरत है। हिंसा के खिलाफ कार्रवाई के दौरान निष्पक्षता से काम करना ही होगा। मुख्यमंत्री को यह भी विचार करना चाहिए कि अपने ही प्रदेश के जातीय हिंसा में मारे गए लोगों को आतंककारी अथवा उग्रवादी बताना कहां तक उचित है। यह समय आग बुझाने का है, न कि आग में घी डालने का।
आरक्षण विवाद मणिपुर तक ही सीमित नहीं है। अनेक राज्यों में आरक्षण विवाद न्यायालयों में विचाराधीन हैं। केंद्र और राज्य सरकार को इस गंभीर मुद्दे का समाधान खोजने के लिए बातचीत की पहल करनी होगी। साथ ही न्यायालय में भी अपना पक्ष पुरजोर ढंग से रखना चाहिए। दोनों पक्षों का विश्वास हासिल करने से ही समस्या का समाधान संभव है।