कर्नाटक के चुनाव परिणामों से दो बातों पर तो मुहर लग गई। पहली-प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी न केवल बिना थके लगातार चुनाव प्रचार कर सकते हैं, बल्कि वे बेजोड़ प्रचारक हैं, उनका कोई मुकाबला नहीं। उन्होंने यह भी साबित कर दिया है कि उनकी अपील उत्तर और पूर्वोतर से पश्चिम, केंद्रीय भारत और अब दक्षिण तक में सुनी जाती है। अब केवल पूर्व को साधना बाकी है।
दूसरी, मिजोरम को छोड़कर कांग्रेस वाकई पंजाब, पुड्डुचेरी और परिवार (पीपीपी) तक ही सीमित रह गई है, जैसा मोदी ने चुटकी लेते हुए कांग्रेस के बारे में कहा था। अपनी पार्टी के छितराये हुए भविष्य को समेटने में लगे राहुल गांधी मोदी का मुकाबला क्या करेंगे?
इस ताजा राजनीतिक घटनाक्रम को देखते हुए क्या मोदी इस वर्ष के दिसंबर माह में ही आम चुनाव करवा लेंगे? मेरा कहना है- हां और इसके तीन कारण हैं।
पहला, अगर राजस्थान और मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत की संभावना बनती है और 2019 तक लोकसभा चुनाव नहीं होते तो बीजेपी कर्नाटक से उठी मौजूदा लहर का फायदा नहीं उठा पाएगी। इसके अलावा अगर इसे राजस्थान और मध्यप्रदेश चुनाव में हार का सामना करना पड़ता है तो पार्टी को आम चुनावों में इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है। निश्चित रूप से प्रधानमंत्री इस स्थिति से बचना चाहेंगे। इससे बचने का एक प्रभावी तरीका यह है कि दिसम्बर में होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों के साथ ही आम चुनाव करवा लिए जाएं।
दूसरा कारण पूर्व में दिए गए तर्क से ही जुड़ा है। अभी कांग्रेस एक बिखरी हुई पार्टी है, लेकिन अगर वह राजस्थान व मध्यप्रदेश का चुनाव जीत जाती है तो पार्टी में नई जान आ जाएगी और कार्यकर्ताओं में जोश। ऐसे में बीजेपी की बुद्धिमानी यही होगी कि आम चुनाव ऐसे वक्त करवाए, जब कांग्रेस दबी हुई और हताश हो न कि तब, जब वह स्वयं को मजबूत समझने लगे और उसमें जीतने की आशा जागे।
तीसरा, नरेन्द्र मोदी राजनीति में खतरों के खिलाड़ी साबित हुए हैं और गुजरात व कर्नाटक में हम देख चुके हैं कि उन्होंने जो दांव खेला उनके पक्ष में रहा। क्या अब वे अपने प्रधानमंत्री पद को दांव पर लगाकर समय से पहले चुनाव करवाएंगे? उनका आत्मविश्वास देख कर लगता है, वे ऐसा ही करेंगे।
फिर ऐसा क्या कारण हो सकता है, जो मोदी को समय पूर्व चुनाव करवाने से रोके? मेरे विचार से इसकी मात्र दो वजहें हो सकती हैं। पहली, जब अटल बिहारी वाजपेयी ने 2004 में समय से पहले चुनाव करवाए थे तो पार्टी को करारी शिकस्त मिली थी और अगले दस साल के लिए पार्टी को विपक्ष में बैठना पड़ा। क्या बीजेपी अब तक उस निर्णय की काली छाया से नहीं उबरी है? इस मामले में मोदी फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं, जैसे दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है।
दूसरा कारण सरकार का पूरे 5 साल का कार्यकाल पूरा करने का मोह है। ब्रिटेन के सफल एवं लम्बे समय तक प्रधानमंत्री रहे मारग्रेट थैचर और टोनी ब्लेयर ने लगातार हर चार साल बाद चुनाव करवाए, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा कि उनके कार्यकाल का पूरा एक साल बाकी था और हर बार उनका तीर निशाने पर लगा। वे ही चुनाव जीते। परंतु क्या मोदी इस बारे में अलग खयालात के हैं। हो सकता है वे दूसरी बार प्रधानमंत्री का चुनाव लड़ने से पहले इस बार का पांच साल का कार्यकाल पूरा करना चाह रहे हों! मोदी के मन की बात वे ही जानें। यूं तो मोदी अपने साहसिक फैसलों के लिए जाने जाते हैं। हो सकता है वे ब्रूटस की तरह सोचते हों, जिसने कहा था- ‘इंसान का जीवन समुद्री लहरों की तरह उठापटक से भरा है, जो ऊंचाई भरी लहर बाढ़ की ओर ले जाती है, वही उसका भविष्य तय करती है। बाकी जो चूक गईं वे तो उसे जिंदगी भर छिछले तल के बंधनों में जकड़कर दुर्भाग्य ही देती हैं। ऐसे सागर में क्या हम तैर पा रहे हैं। हमें इस बात का एहसास होना चाहिए कि कब यह हमें सुकून दे रहा है और कब हम इस सुकून में अवसर उठाने का साहस नहीं कर पा रहे।’
लगता है दिसंबर में आम चुनाव की लालसा का कोई अंत नहीं है।