दो राज्यों में बसपा के दावं ने महागठबंधन पर भले ही अटकलों को हवा दे दी हो, लेकिन इसे मायावती की दूर की कौड़ी की तरह भी समझा जाना चाहिए। इन कदमों को केंद्रीय जांच एजेंसियों के दबाव का नतीजा या भाजपा की परोक्ष मदद जैसी तोहमत लगाना, मायावती के सियासी कौशल को कम आंकने जैसा होगा। आखिर किसे विश्वास था कि मुलायम की पार्टी और उन्हें अपनी जान का दुश्मन मानने वाली मायावती कभी मिलकर चुनाव लड़ेंगे? संसद में मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर कांग्रेस का साथ देने वाली बसपा ने हाल में पेट्रोल-डीजल के खिलाफ भारत बंद में राहुल की पार्टी का साथ देने से इनकार कर दिया था। ऐसे सधे हुए कदमों के साथ आगे बढ़ रही मायावती की निगाह सीधे लोकसभा चुनाव पर है।
राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का जोर अपनी झोली में कुछ राज्य लाकर 2019 के महासमर के लिए दम भरना है। भाजपा अपने राज्य बचाकर ‘मोदी मैजिक’ कायम रहने का नारा बुलंद करना चाहती है। तो यह मानने में तंगदिली क्यों बरती जाए कि मायावती ने भी हाथी के शक्ति प्रदर्शन के लिए अलग राह चुनी होगी, ताकि लोकसभा चुनाव में महागठबंधन की सूरत में सीट दावेदारी मजबूत हो सके। इस कदम से कांग्रेस और भाजपा में किसे फायदा होगा और किसे नुकसान, इसका मर्म इन दलों तक ही सीमित है।
देश में चुनावी राजनीति कांग्रेस या भाजपा के नफा-नुकसान से ही आंकी जाए, यदि इस धारणा से विवेचनाएं होंगी तो अन्य दलों के साथ यह नाइंसाफी होगी। ऐसे आकलन भाजपा और कांग्रेस जैसे विशाल दलों से असंतुष्ट देश के बड़े जनमत की उपेक्षा भी माने जाने चाहिए। पांच साल पहले हुए विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में बसपा को क्रमश: 6.29 प्रतिशत और 4.27 प्रतिशत वोट मिले थे। मप्र में बसपा के चार और छत्तीसगढ़ में एक प्रत्याशी को जीत मिली थी।
राजस्थान में कुल 3.4 प्रतिशत वोट पाने वाली यह पार्टी तीन सीट पर विजयी रही थी। दलित चेतना व सवर्ण आंदोलन के बाद इन तीनों राज्यों में नया सियासी परिदृश्य चुनौतीपूर्ण तो है ही, भाजपा और कांग्रेस की पेशानी पर बल के बीच हाथी के पदचाप ने समीकरण और उलझा दिए हैं। सियासत के मंझे खिलाडिय़ों के सधे कदम भविष्य की राजनीति को और समावेशी, बड़े दलों को बड़ा दिलवाला बनने के लिए मजबूर करें तो लोकतंत्र मजबूत ही होगा।