पिछले कुछ वर्षों से विधायिका के बनाए कानूनों में न्यायिक विवेचना के दौरान खामियां उजागर होने या बाद में प्रशासनिक स्तर पर खामियां उजागर होने पर संशोधन करने के मामले बढ़े हैं। विधायिका को इनमें संशोधन करना पड़ता है। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने हाल ही एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि संसद में बहस की कमी के कारण कानून में अस्पष्टता रह जाती है। एक विस्तृत चर्चा मुकदमेबाजी के बोझ को कम करती है। चर्चा के अभाव में यह साफ नहीं हो पाता कि कानून बनाने का उद्देश्य क्या है। जाहिर है सीजेआई विधायिका में आनन फानन में पारित हो रहे विधेयकों से चिंतित थे।
कानून बनते समय इन पर कितनी चर्चा होती है, इसकी बानगी राजस्थान विधानसभा के अभी चल रहे सत्र में देखी जा सकती है। सोमवार को सदन में दो विधेयक करीब छह घंटे और मंगलवार को तीन विधेयक करीब चार घंटे की चर्चा में पारित हो गए। एक संशोधन विधेयक पर मंत्री ने सदन में बताया भी कि विधेयक में सजा के प्रावधानों में कमी रह गई थी। यह संशोधन 11 वर्ष बाद हुआ है। मंत्री के अनुसार अब इस कानून के तहत दोषियों को कड़ी सजा मिल सकेगी। सदन के सदस्यों ने इस पर पूर्व के विधेयक में कमियां रखने वालों के खिलाफ भी कार्रवाई की मांग की।
आखिर पिछले 11 वर्षों के बीच जो अपराधी कानून की इस खामी का लाभ उठा कर सजा पाने से बच गए और बुलंद हौसलों के साथ पर्यटकों को लूटने में लगे रहे उसके लिए जिम्मेदार कौन होगा? साफ है कि विधेयकों में इस प्रकार की खामियां उन पर पर्याप्त चर्चा नहीं होने के कारण ही रह जाती हैं। ऐसे में यह विधायिका की जिम्मेदारी बन जाती है कि वह पर्याप्त चर्चा सुनिश्चित करे। इसके लिए किसी भी विधेयक पर चर्चा के न्यूनतम घंटे तय कर उतनी चर्चा के बाद ही उसे पारित किए जाने पर विचार किया जा सकता है। यह विधायिका और लोकतंत्र में जनता के विश्वास को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। (अ.सिं)