हमारे देश में अकसर सार्वजनिक संस्थानों, शहरों और सडक़ों के नामों को लेकर विवाद की स्थिति सामने आती रहती है। किसी का भी नाम स्थान विशेष के इतिहास, उसकी अस्मिता, संस्कृति और परंपराओं से जुड़ा भावनात्मक और वैचारिक मुद्दा होता है। नाम हमारी पहचान का द्योतक होता है। भारत में विभिन्न समुदायों, संप्रदायों और संस्कृतियों के शासकों ने लम्बे समय तक शासन किया है। वे, अपने शासन के दौरान नगरों और कस्बों के नाम अपनी सुविधानुसार बदलते रहते थे। न सिर्फ नगर-कस्बे वरन् शिक्षण संस्थान और यहां तक कि धार्मिक स्थल भी नामकरण की इस प्रक्रिया से अछूते नहीं रहे।
हमारे इतिहास में मुख्यत: यह देखा गया है कि जिस भी शासक का शासन रहा उसने अपनी शासन की जड़ें मजबूत करने और जनता पर अपनी विचारधारा थोपने के लिए स्थलों के नाम बदल कर नागरिकों की मनोदशा बदलने की असफल कोशिश की। हिन्दू और मुस्लिम शासक ही नहीं बल्कि देश के अंतिम शासक रहे साम्राज्यवादी अंग्रेज भी अलग-अलग कारणों से इसमें शामिल रहे। कुछ तो स्थानीय भाषा न जानने की मजबूरी, कुछ पाश्चात्य संस्कृति को जनमानस में थोपने की राजनीति और कुछ स्वयं की उच्चारण की सुविधा को देखते हुए विभिन्न नगरों और कस्बों के नाम अंग्रेजी भाषा के अनुसार बना दिए। उदाहरण के तौर पर देखें तो चेन्नई को मद्रास, मुंबई को बॉम्बे, थिरुवनंतपुरम को त्रिवेंद्रम किया गया।
आजादी के आंदोलन के समय भी स्वतंत्रता सेनानियों ने जब अपने-अपने क्षेत्रों में विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की तो उन्हें उन संस्थानों की स्थापना के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने की मशक्कत करनी पड़ी। अपने लोगों को जोडऩे के लिए उन्होंने संस्थान के नाम में सम्प्रदाय को भी शामिल कर दिया। इसी से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) जैसे शिक्षण संस्थानों की आधारशिला रखी गई। आजादी के पश्चात इन संस्थानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और सरकार ने इनका संचालन अपने हाथ में ले लिया। लेकिन, तब तक इन संस्थानों के नाम इनकी पहचान बन चुके थे। सरकार ने भी इनके नामों से किसी प्रकार की कोई छेड़छाड़ न करते हुए इनके मूल नामों को यथावत् रखा।
इसके साथ ही इन सभी विश्वविद्यालयों का विशेष दर्जा समाप्त कर सामान्य दर्जा भी कर दिया गया। आजादी के बाद लम्बे समय तक शासन में रही कांग्रेस सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का अल्पसंख्यकों के शिक्षण संस्थान का दर्जा बरकरार रखा। इसी विशिष्ट दर्जे के तहत अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी विद्यार्थियों के प्रवेश के लिए जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की तरह पचास फीसदी सीटें मुस्लिम विद्यार्थियों के लिए आरक्षित रख सकता है। यही नहीं उसे संविधान द्वारा प्रदत्त जातिगत आरक्षण के मामले में भी विशिष्ट दर्जे के शिक्षण संस्थान के चलते छूट हासिल है। इसके अलावा सरकार ऐसे संस्थानों की जमीन को मुआवजा देकर भी अवाप्त नहीं कर सकती।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में लम्बे समय से विचाराधीन जनहित याचिका पर सरकार से जवाब मांगा कि जब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का संचालन सरकारी संसाधनों से हो रहा है तो उसे किस आधार पर अल्पसंख्यकों के शिक्षण संस्थान का दर्जा दिया गया है। इस पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने एक कमेटी बनाकर इस मुद्दे पर सलाह मांगी। कमेटी का सुझाव था कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के नाम से ‘एम’ यानी मुस्लिम शब्द हटा दिया जाए तो शायद आपत्ति के कारणों को समाप्त किया जा सकता है। साथ ही कमेटी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का भी उल्लेख किया और कहा कि इसके नाम में से भी ‘एच’ यानी हिन्दू शब्द को हटाया जा सकता है। हालांकि यूजीसी ने कमेटी के इस सुझाव पर कोई फैसला नहीं किया है।
इसमें यह भी
ध्यान रखना होगा कि बीचयू में ‘हिन्दू’ शब्द जुड़ा होने के बावजूद न तो इसे किसी किस्म का विशेष दर्जा प्राप्त है और न ही उसे विशेष सुविधा मिली है। यहां देश के अन्य विश्वविद्यालयों की तरह सभी नियम-कायदे लागू होते हैं और यह सभी के लिए समान रूप से खुला है। संचार माध्यमों ने इसे नाम से जुड़ा मुद्दा बनाकर असली मामले से भटकाने की कोशिश ही की है। यहां मामला सिर्फ नाम का नहीं है।
असली सवाल तो यही है कि जब सरकार विश्वविद्यालय को चलाने के लिए जनता के पैसे का इस्तेमाल कर रही है तो इसे विशेष दर्जा किस आधार पर दिया जाए? हां, अगर विश्वविद्यालय स्ववित्तपोषित होता या दानदाताओं के सहयोग से चलता तो फिर इसे अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक या अन्य विशेष दर्जा दिया जा सकता था। इस मामले में सरकारों की मंशा पर सवाल उठने लाजिमी हैं। वैश्वीकरण के दौर में जब समूचे देश में शिक्षा के आधुनिकीकरण और व्यवसायीकरण का बोलबाला है, ऐसे में इतने पुराने और प्रतिष्ठित संस्थान को अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त होना सरकारों की नीयत की तरफ साफ इशारा करता है। यहां सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि क्यों हर बार ऐसे राष्ट्रहित और जनहित से जुड़े मामलों पर न्यायालयों को ही आगे आना पड़ता है।