जाहिर है कि इतने ज्यादा वोट किसी हथकंडे या तिकड़म से तो मिल नहीं सकते। इसके लिए बड़े पैमाने पर देश भर में जनता के बीच मोदी सरकार के प्रति जबरदस्त सद्भावनाएं होनी चाहिए। ‘एंटी-इन्कम्बेंसी’ के बजाय ‘प्रो-इन्कम्बेंसी’ होनी चाहिए। यह तभी हो सकता है जब न केवल अर्थव्यवस्था के वैकासिक मानक सरकार के पक्ष में हों, बल्कि मोदी की योजनाओं का जमीन पर ठीक से कार्यान्वयन हुआ हो। आकलन करें तो मोदी सरकार का प्रदर्शन सीधे-सीधे दो भागों में बंटा नजर आता है। एक भाग में उजाला तो है, पर उस पर अंधकार हावी हो गया है। कुल मिलाकर मैं इसे सरकार का ‘कृष्ण पक्ष’ कहूंगा। दूसरे भाग में कमोबेश कुछ उजाला नजर आता है, लेकिन बीच-बीच में अंधेरा उपस्थिति दर्ज कराता है। थोड़ी हीलाहवाली के साथ इसे सरकार का शुक्ल पक्ष कहा जा सकता है।
भाजपा सरकार के
कृष्ण ? पक्ष के चार प्रमुख आयाम हैं। पहला है मुद्रास्फीति की लगाम हाथ से छूट जाना। शासन के शुरुआती दौर में अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिंसों के दाम गिर जाने, तेल की कीमतों में गिरावट आने और किसानों को बढ़े हुए समर्थन मूल्य देने से लगातार इंकार करने के कारण मोदी को मुद्रास्फीति पर काबू पाने में कामयाबी मिली थी। इसे अच्छे शासक की खुशकिस्मती के रूप में पेश किया गया था। लेकिन इस समय तेल की कीमतें आसमान छू रही हैं, जिंसों के बाजार में भी गर्मी है और आखिरकार किसानों को कुछ न कुछ बढ़े हुए दाम देने ही पड़ रहे हैं।
कृष्ण पक्ष का दूसरा आयाम है, सरकार द्वारा देशी पूंजी को घरेलू मोर्चे पर निवेश बढ़ाने के लिए राजी करने में नाकाम रहना। असली समस्या यह है कि उत्पादन की पहले से स्थापित क्षमता का ही अधिकतम दोहन नहीं हो पा रहा। हर उद्योगपति जानता है कि ‘व्यापार करने की आसानी’ के जो सूचकांक उन्हें थमाए गए हैं वे आंकड़ों की बाजीगरी के अलावा कुछ नहीं। ऐसी स्थिति में नए कारखाने लगाने में किसी की दिलचस्पी नहीं है। तीसरा पक्ष है नए रोजगारों के सृजन में नाकामी का जारी रहना। समस्या पहले से चली आ रही है, पर मोदी सरकार इसमें पहले से भी ज्यादा नाकाम है। मुद्रा योजना द्वारा
रोजगार देने की दावेदारी की पोल थोड़ा-सा विश्लेषण करने से ही खुल जाती है। यह योजना एक व्यक्ति को औसतन 21 हजार रुपए के आसपास ही पूंजी दे पाई है। चौथा आयाम है खेतिहर क्षेत्र की बदहाली। कृषि में निवेश और उत्पादन इतना सिकुड़ गया है कि उसकी दुर्गति ग्रामीण भारत का स्थायी भाव बन गया है।
भाजपा सरकार के शुक्ल पक्ष का श्रेय मुख्य रूप से उसकी छह योजनाओं को जाता है। ये हैं जनधन योजना,
स्वच्छ भारत अभियान , उज्ज्वला योजना, ग्राम ज्योति योजना, ग्राम सडक़ योजना और कौशल विकास योजना। इन महत्त्वाकांक्षी योजनाओं के जमीनी प्रदर्शन की स्थिति आधे भरे हुए गिलास जैसी है, जिसे देख दोनों तरह की बातें कही जा सकती हैं। मोदी समर्थक कहेंगे कि ये सफल हैं। इसीलिए उनकी लोकप्रियता बनी हुई है और कई विधानसभा चुनाव जीते जा चुके हैं। लेकिन आंकड़े मिली-जुली कहानी कहते हैं।
मसलन, जनधन योजना बड़े पैमाने पर लोगों को वित्तीय समावेशन के दायरे में लाई, लेकिन इसके तहत निष्क्रिय खातों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। इसी तरह उज्ज्वला योजना ने गैस-कनेक्शनों की संख्या तो बढ़ा दी, लेकिन गैस उपभोग के आंकड़ों में उस संख्या के मुताबिक वृद्धि नहीं हुई। इसी तरह स्वच्छ भारत अभियान और विद्युतीकरण की प्रक्रिया के आंकड़ों को कई विशेषज्ञों ने संदेह के दायरे में रखा है। ग्रामीण सडक़ योजना में प्रगति तो दिखाई पड़ती है, लेकिन इस प्रगति को प्रभावशाली मानने के लिए कोई तैयार नहीं है। जहां तक कौशल विकास योजना का सवाल है, इसकी विफलता विवाद से परे है। खुद सरकारी रपटें बताती हैं कि देर से सक्रिय हुई यह योजना कुछ खास नहीं कर पाई।
जो भी हो, समष्टिगत (रोजगार, निवेश, मुद्रास्फीति वगैरह) मोर्चे पर नाकाम रहने के बाद मोदी सरकार को इन छह व्यष्टिगत योजनाओं का ही सहारा है, क्योंकि यहां आधा-अधूरा ही सही, पर कम से कम कुछ शुक्ल पक्ष दिखाई तो पड़ता है। समझा जाता है कि इसी के इर्द-गिर्द मोदी के रणनीतिकारों द्वारा अपनी सफलता का आख्यान बुनने की योजना बनाई जा रही है।