scriptऋण और ब्याज पर मोरेटोरियम: क्या होनी चाहिए नीतिगत प्रतिक्रिया | Moratorium on loans and interest: what should be the policy response | Patrika News

ऋण और ब्याज पर मोरेटोरियम: क्या होनी चाहिए नीतिगत प्रतिक्रिया

locationनई दिल्लीPublished: Oct 22, 2020 05:52:37 pm

Submitted by:

shailendra tiwari

विशुद्ध रूप से व्यावसायिक दृष्टिकोण यह है कि जैसे बैंक जमा पर ब्याज देते हैं, वैसे ही वे कर्जदारों से ब्याज वसूलते हैं

 

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RBI MPC Meet: Reserve Bank did not change Repo rates, know many more

ऋण और ब्याज पर स्थगन का मामला कुछ हैरतअंगेज घटनाक्रमों के साथ दिलचस्प मोड़ लेता जा रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब इस लड़ाई में कोर्ट की भी भूमिका शामिल हो गई है। अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि अदालतें आम आदमी की दिवाली की बात कर रही हैं, जो कि ऐसी स्थिति है, जिसे शुद्ध रूप से कानून की व्याख्या आदेशित नहीं करती, बल्कि त्योहारों के मौके पर यह कार्यपालिका के कामकाज में पडऩे जैसा है। इस संबंध में किसी भी फैसले का सरोकार पूरी तरह व्यावसायिक है, और अदालतों को इसमें नहीं पडऩा चाहिए।

ऋण एक अनुबंध होता है, लेनदार और देनदार के बीच। हर ऋण अनुबंध अपने आप में अलग है। इन अनुबंधों में राहत से लेकर ‘फोर्स मेज्योर’ (आपात स्थिति में दोनों पक्षों को जिम्मेदारी से मुक्त करने) संबंधी प्रावधान होते हैं। किसी सामान्य स्थिति में लोन लेने वाला व्यक्ति व्यापार में नुकसान या विफलता के चलते संभव है कि ऋण न चुका पाए। ऐसे में बैंक इस संपत्ति को डिफॉल्ट घोषित कर सकते हैं या फिर ऋण वसूली के लिए कानूनी प्रक्रिया का सहारा ले सकते हैं। एक समानान्तर प्रक्रिया भी है, जिसके तहत ‘डिफॉल्ट संपत्ति’ का विवरण क्रेडिट ब्यूरो को सौंप दिया जाता है यानी दर्शाया जाता है कि ऋण लेने वाले ने ऋण अनुबंध का उल्लंघन किया। ऐसे में अदालत का दखल संभव है, यदि कोई भी पक्ष अनुबंध की शर्तों की व्याख्या और अनुपालना को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटाता है।

सिद्धांतत: सरकार या न्यायपालिका अनुबंध पर स्वत: संज्ञान नहीं लेते हैं। लेकिन मौजूदा स्थितियां सामान्य नहीं हैं। नीतिगत प्रतिक्रिया क्या हो, अगर ऐसे मामले बड़े पैमाने पर सामने आएं तो? इस संबंध में तीन तरह की नीतिगत प्रक्रियाएं हो सकती हैं, जो प्रभावित पक्षों के लिए मददगार साबित हो सकती हैं –

(1) क्रेडिट ब्यूरो से आग्रह किया जाए कि डिफॉल्ट को ‘विशेष परिस्थितियों के तहत डिफॉल्ट’ दिखाया जाए। इससे कम क्रेडिट स्कोर का नकारात्मक असर खत्म हो जाता है और कर्जदार आगे भी ऋण लेने में सक्षम हो जाता है। (2) संस्थानों को ऋणों को नए अनुबंध में क्रमोन्नत करने की अनुमति देना – समान मासिक किस्तें (ईएमआइ) पुन: तय करना, संपत्ति को अनुपयोज्य आस्ति (एनपीए) घोषित किए जाने को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किए बिना ऋण पुनर्भुगतान अवधि बढ़ाना। (3) संस्थानों को ऋण शोधन क्षमता बनाए रखने के लिए आसान व सुलभ पूंजी उपलब्ध करवाना। व्यक्तिगत अनुबंधों मेे हस्तक्षेप किए बिना ऐसा संभव है, वह भी बैंकों को उपरोक्त दो बिंदुओं के आधार पर अनुबंध को पुन: परिभाषित करने में मदद करते हुए।

यह बड़ा सवाल है कि ब्याज को चक्रवृद्धि ब्याज में परिवर्तित करना अनुचित है अथवा आदर्शों के प्रतिकूल। मुश्किल घड़ी में ब्याज को चक्रवृद्धि ब्याज में बदलना नैतिकता पर सवाल खड़े करता है। विशुद्ध रूप से व्यावसायिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो जिस तरह बैंक मासिक अथवा त्रैमासिक आधार पर जमाओं पर ब्याज देते हैं या उनका पुन: निवेश करते हैं, वैसे ही वे कर्जदारों से ब्याज वसूलते हैं। बाहरी तौर पर स्थगन के दौरान चक्रवृद्धि ब्याज वसूलना नैतिक रूप से उचित है। अच्छा है कि भूल सुधारते हुए सरकार बैंकों के नुकसान की पूर्ति का विचार कर रही है।
क्रिकेट मैच में बारिश के चलते अनुचित ‘डकवर्थ लुईस गणना’ अक्सर देखने में आती है। यह ऐसा मामला है जिसमें सरकार और न्यायपालिका के नेक इरादों के चलते सांस्थानिक ढांचे को नुकसान पहुंच रहा है। करीबियों के लोन बट्टे खाते डालने हों या किसानों के ऋण माफ करने हों, सांस्थानिक तर्क नहीं बदलते, लेकिन नैतिक तर्क जरूर अलग हैं। बार-बार नैतिक तर्क लागू करना ही समस्या है।
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