scriptसांस्कृतिक गौरव बढ़ाती मातृभाषा | mother tongue a proud for us | Patrika News

सांस्कृतिक गौरव बढ़ाती मातृभाषा

Published: Feb 21, 2017 01:32:00 pm

Submitted by:

यह भी एक तथ्य हैं कि भाषाएं परस्पर विरोधी नहीं होतीं लेकिन राजनीतिक दुराग्रह हमेशा भाषाओं को अपने स्वार्थ पूरे करने के लिये एक हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं।

भाषाएं केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं सांस्कृतिक गौरव की वाहक भी होती हैं। शायद यही वजह है कि जब-जब औपनिवेशिक ताकतों को मौका मिला, उन्होंने शासितों के भाषाई गौरव पर कुठाराघात जरूर किया। भारत में लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति का आधार भी यही था। 
उस दौर में यह स्वाभाविक था कि सरकारी नौकरियों में अपना मुकाम बनाने के लिये लोग अंग्रेजी के प्रति आकर्षित हों। अंग्रेजी के प्रति यह मोह आज नजर आता है। यह बात सही है कि विभिन्न भाषाओं का ज्ञान हमारी अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावशाली बनाता है। 
खासकर लोकभाषाओं के पास मुहावरों और शब्द अनुभवों के भंडार से अनेक मौकों पर बात का तीर ठीक निशान पर लगता है। लोकभाषाओं की शब्द सामथ्र्य का अनुमान इससे ही लगाया जा सकता है कि राजस्थानी भाषा में केवल ऊंट के लिए चार सौ से अधिक पर्यायवाची हैं। वहीं विक्रमी कलैण्डर के हर महीने में बरसने वाले बादलों के लिये एक अलग नाम है। 
यह भी एक तथ्य हैं कि भाषाएं परस्पर विरोधी नहीं होतीं लेकिन राजनीतिक दुराग्रह हमेशा भाषाओं को अपने स्वार्थ पूरे करने के लिये एक हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं। याद करें, 21 फरवरी 1952 को तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के ढाका शहर में ऐसे ही मंतव्यों के कारण कई युवाओं को पुलिसिया दमन का शिकार होना पड़ा।
दरअसल, पाकिस्तान बनने के पहले से ही यह सवाल हवा में तैरने लगा था कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा क्या होगी? पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत खान ने उर्दू को पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा घोषित कर दिया। 
पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लाभाषी लोगों ने इसे अपने अस्तित्व की अनदेखी मानते हुए प्रतिक्रिया में बांग्ला को राजभाषा बनाने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया। 21 फरवरी, 1952 को ढाका में जब आंदोलनकारी जनपथ पर आए तो पुलिस ने फायरिंग में कई लोग मारे गये। 
इसीलिए यूनेस्को ने 17 नवंबर, 1999 को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के लिए 21 फरवरी का दिन ही चुना गया। बांग्लादेश में तो इस दिवस को भाषा शहीद दिवस के रूप में पहले से मनाया जाता है और भाषाई गौरव के संघर्ष की स्मृति में वहां इस दिन राष्ट्रीय अवकाश भी होता है। 
मातृभाषा अर्थात वह भाषा, जिसे अपने परिवेश में सुनते और बोलते हुए एक बच्चा बड़ा होता है। भाषा का यह मोह कभी-कभी राजनीतिक शोषण के प्रति भावनात्मक आंदोलन का कारण भी बन जाता है। यह महज संयोग नहीं है कि दुनिया में इस समय प्रचलन में मौजूद करीब सात हजार भाषाओं में से आधी भाषाओं पर इस सदी के अंत तक लुप्त हो जाने का खतरा मंडरा रहा है। 
क्या संवेदनशील लोगों के लिये यह सनसनीखेज नहीं होना चाहिये? ऋग्वेद में एक सूक्त है -‘इला सरस्वती मही तिस्त्रो देवीर्मयोभुवह्। विद्वानों के अनुसार इस सूक्त का प्रतीकात्मक अर्थ है कि मातृभाषा, मातृ संस्कृति और मातृभूमि- तीनों सुखकारिणी देवियां हमारे हृदयासन पर विराजें। 
ऋग्वैदिक समाज के लिए मातृभाषा निश्चित रूप से एक पवित्र सरोकार रहा होगा। लेकिन अब तक हमारी पवित्र नदियों में बहुत पानी बह चुका है। लंबी राजनीतिक दासता ने हमारे भाषाई गौरव को इतना कुंद कर दिया है कि आज भी हिन्दुस्तान में स्थित अभिजात्य वर्ग अपनी भाषा के बजाए अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस करता है।
ऐसा नहीं है कि आजादी के बाद भारत में भाषाई विवादों ने रंग नहीं दिखाए। सामाजिक कार्यकर्ता पी. श्रीरामलू ने भाषाई आधार पर तत्कालीन मद्रास प्रांत से आंध्रप्रदेश को अलग करने की मांग को लेकर 58 दिन के अनशन के बाद देह त्याग दी थी। श्रीरामलू का संघर्ष रंग लाया और वर्ष 1953 में आंध्रप्रदेश अस्तित्व में आया। इसके पहले वर्ष 1950 में बने राज्य पुनर्गठन आयोग ने भाषा के आधार पर ही राज्यों के गठन की सिफारिश की थी। 
वर्ष 1960 में तत्कालीन बंबई प्रांत से महाराष्ट्र और गुजरात राज्य के पृथक होने और वर्ष 1966 में पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश के सीमांकन में भी भाषा एक प्रमुख आधार मानी गई। संविधान की आठवीं अनुसूची में उन भाषाओं को शामिल किया गया है, जिन्हें राज्य मान्यता देता है। लेकिन इस सूची में अभी विसंगतियां हैं। मसलन-राजस्थानी भाषा का ही मसला लें। 
राजस्थानी भाषा को नई दिल्ली स्थित साहित्य अकादमी मान्यता देती है। देश-दुनिया के अनेक विश्वविद्यालयों में राजस्थानी भाषा एक स्वतंत्र भाषा के तौर पर पढ़ाई जाती है। लेकिन आज भी राजस्थानी भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने की प्रतीक्षा कर रही है। 
इसके मूल में कोई राजनीतिक सरोकार हो सकते हैं लेकिन मातृभाषा दिवस हम सब को एक मौका देता है कि हम अपनी -अपनी मातृभाषा की ताकत को पहचानें। दिवंगत कन्हैया लाल सेठिया का यह दोहा इस दृष्टि से अहम हो जाता है- 
मायड़ भासा बोलताँ जिणनै आवै लाज,

अश्या कपूताँ सूँ दुखी, सगळो देस समाज।

जिन्हें अपनी मातृभाषा बोलते शर्म आती है ऐसे कपूतों से उनका देश-समाज दु:खी ही रहता है।

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो