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समर्थन मूल्य या अवमूल्यन

Published: Dec 11, 2020 08:46:15 am

Submitted by:

Gulab Kothari

किसान आन्दोलन के दो मुख्य पहलू दिखाई पड़ते हैं। एक न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग, जिसे कुछ वर्ष पूर्व स्वामीनाथन आयोग ने यह प्रस्ताव देकर हवा दी थी कि किसान को औसत लागत से भी पचास प्रतिशत अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलना चाहिए।

Harvesting of crops affected

Harvesting of crops affected

– गुलाब कोठारी

एक ओर जीवन को कोरोना आन्दोलन से जूझना पड़ रहा है, जहां भ्रष्टाचार का चरम सांसे रोक रहा है, वहीं देश में किसान आन्दोलन ने केन्द्र द्वारा पारित कृषि बिलों के विरोध में भिन्न वातावरण बना दिया है। हवा का रुख कुछ और कह रहा है। किसान इस देश का सबसे बड़ा मतदाता है। अत: इसका असर कोरोना से कम नहीं होने वाला।
किसान आन्दोलन के दो मुख्य पहलू दिखाई पड़ते हैं। एक न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग, जिसे कुछ वर्ष पूर्व स्वामीनाथन आयोग ने यह प्रस्ताव देकर हवा दी थी कि किसान को औसत लागत से भी पचास प्रतिशत अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलना चाहिए। भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र में समर्थन मूल्य देने का वादा किया गया था। दूसरा मुद्दा है-कानून में बदलाव, जिस कारण लोकतंत्र में प्रदत्त अधिकारों पर कुठाराघात होता दिखाई पड़ रहा है। इस मुद्दे पर
न्यायपालिका को ही बाहर कर दिया गया है। संविधान में तीन के स्थान पर इन कृषि क्षेत्रों में दो ही स्तम्भ रह जाएंगे। विधायिका (कानून बनाने
वाली) तथा कार्यपालिका (कानून लागू करने वाली)। दिल्ली की बार एसोसिएशन राष्ट्रपति से गुहार करने की भी तैयारी कर रही है। जहां तक मेरी जानकारी है सरकार इस धारा को हटाने के लिए तैयार हो गई है। अब बात इस जगह ठहर गई है कि किसान, कानूनों को ही वापिस लेने को लेकर अड़े हुए हैं। सरकार के पक्ष में यह होगा कि जिन मुद्दों पर सहमति हो चुकी है, उनकी घोषणा तो कर ही दे। बातचीत में गर्मी कम हो जाएगी।
दूसरा मुद्दा अहम् है। न्यूनतम समर्थन मूल्य का आधार भी स्पष्ट रूप से वोटों की राजनीति पर ही टिका है। देश के कृषक विकास के कारण दो खेमों में बंट गए। एक नहरी कृषि क्षेत्र तथा दूसरा प्राकृतिक-पार्परिक क्षेत्र। नहरी क्षेत्रों में नेताओं और प्रभावशाली अधिकारियों की जमीनें भी बहुतायत से हैं। इन क्षेत्रों की आय भी अन्य क्षेत्रों के किसानों से बहुत ज्यादा है। किसान राजनीति को भी प्रभावित करते हैं।
विकसित नहरी खेती की शुरूआत भी पंजाब (आज पंजाब-हरियाणा) से ही हुई थी। यहां का किसान देश में सर्वाधिक समृद्ध है। पंजाब का ही एक हिस्सा कनाडा और ब्रिटेन में बसा है। कनाडा का कृषि क्षेत्र तो मूलत: पंजाबियों के ही हाथ में है। इसका एक नकारात्मक प्रभाव रासायनिक खाद तथा कीटनाशक के सर्वाधिक उपयोग में दिखाई दिया। देश के किसानों में सर्वाधिक कैंसर रोगी पंजाब में हैं। बीकानेर आने वाली कैंसर ट्रेन कम पड़ रही है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य ने देश के किसानों को उजाड़ दिया। हमारा कृषि प्रधान देश, कृषि उत्पाद के क्षेत्र में निर्धन हो गया। समर्थन मूल्य की गुलामी भोग रहा है। एक ओर समर्थन मूल्य मुख्यत: गेहूं और चावल (नहरी क्षेत्र) क्षेत्रों का ही पोषण कर रहा है। दूसरी ओर प्रभावशाली किसानों को ही इसका लाभ मिल रहा है। अधिकांश किसान आज भी कम दामों में अपनी उपज बेच रहे हैं। राजस्थान या मध्यप्रदेश की बात नहीं, देशभर में अन्य प्रकार के जिन्स से सौतेला व्यवहार हो रहा है। उधर गेहूं और चावल पर समर्थन मूल्य की बड़ी मार पड़ रही है। अकेले राजस्थान और मध्यप्रदेश में लगभग पचास हजार टन (प्रत्येक
प्रदेश में) गेहूं प्रतिवर्ष सड़ जाता है। भण्डारण की व्यवस्था नहीं है। क्या कृषक इसे अपमान नहीं मानते-अपने खून-पसीने का? अथवा उन्हें केवल मूल्य चाहिए! विचारणीय प्रश्न है।
यह स्थिति क्यों बनी? समर्थन मूल्यों के कारण। सारा कृषक समुदाय गेहूं-चावल पर टूट पड़ा। भारी जल क्षेत्रों में तो गेहूं-चावल की बाढ़ आ गई। भाव कैसे बढ़ सकते हैं। केवल सरकारों के संरक्षण में। सरकारों का €क्या जाता है? जनता का धन है, लुटाओ। कहीं एक रुपए किलो, तो कहीं दो रुपए किलो। फिर भी सड़ जाए तो बेच दो शराब फैक्ट्रियों को। वाह रे लोकतंत्र!!
इतना बड़ा कृषक आन्दोलन समर्थन मूल्यों के लिए अथवा देश को उत्पादों से शून्य कर देने के लिए!! आज देश में तिलहन-दलहन-फल-सब्जियों तक का आयात कितना बढ़ गया है। जयपुर में विदेशी अमरूद स्थानीय से सस्ता है। €क्यों? यही सब कुछ हमारा किसान बेचता, तब क्या वह समृद्ध नहीं हो जाता!! फिर किसकी नजर लगी उसको? समर्थन मूल्य की! समर्थन मूल्य के छोटे से लालच में पडक़र बड़ी महंगी फसलें लुप्त हो गईं। जैसे आरक्षण में चंद लोगों को ही लाभ मिला, समर्थन मूल्य का लाभ भी बहुत छोटे-छोटे क्षेत्रों में बंटकर रह गया। समर्थित अनाज सडऩे लगा। शेष का उत्पादन नगण्य रह गया।
देश की उपज में एक असाधारण असंतुलन आ गया। सरकारों के लिए यह भी संभव नहीं कि सारे ही उत्पादों पर समर्थन मूल्य घोषित कर दें। गेहूं-चावल वाले तो यह भी नहीं चाहेंगे। इनके सपने विदेशों से भी जुड़ गए और सत्ता से भी। वरना सरकारें (स्थानीय) क्योंकर इनका समर्थन करतीं? सरकारों को भी अन्य किसान और अन्य उपज (छोटे किसान) कहां दिखाई पड़ते हैं! उनको तो बीमा कंपनियां ही समेट लेती हैं।
सरकारों को देशहित में विचार करने की आवश्यकता है। सड़ते हुए अनाज को भी रोकना है और अनावश्यक आयात को भी। सरकार भी उतनी ही खरीद करे जितनी उसकी वितरण प्रणाली को आवश्यकता है। सड़े हुए अनाज का भी और विदेशी मुद्रा का भी बोझ जनता पर ही आता है। इस परिस्थिति में तो समर्थन मूल्य की नीति पर भी नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है। देश पहले है।
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