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आख्यान: माता अनुसुइया ने दिखाई निष्ठा की अलौकिक शक्ति

माता अनुसुइया एक सामान्य नारी थीं। उनका धर्म ही उनकी शक्ति बना। वे अपने धर्म पर अडिग रहीं, तो त्रिदेवियों से भी श्रेष्ठ मानी गईं।

Sep 30, 2020 / 02:48 pm

shailendra tiwari

भारतीय पौराणिक इतिहास में माता अनुसुइया एक ऐसी स्त्री हैं, जिन्हें त्रिदेवों की माता होने का गौरव प्राप्त है। कथा कुछ यूं है कि माता अनुसुइया के पतिव्रत धर्म की ख्याति जब समस्त लोकों में पहुंची तो त्रिदेवियों को आश्चर्य हुआ। उन्हें लगता था कि पतिव्रत धर्म का पालन उनसे अधिक कोई कर ही नहीं सकता। सो माता अनुसुइया की परीक्षा लेने के लिए उन्होंने त्रिदेव को भेजा। त्रिदेव साधु वेश में आए और माता अनुसुइया से भोजन कराने के लिए कहा। माता ने तुरंत उनके लिए भोजन बनाया और उन्हें आसन ग्रहण करने को कहा। तब त्रिदेवों ने एक शर्त रख दी कि वे भोजन तभी ग्रहण करेंगे जब वे उन्हें निर्वस्त्र हो कर खिलाएंगी।

माता अनुसुइया आश्चर्य में पड़ीं, क्योंकि ऐसा करने से उनका पतिव्रत धर्म प्रभावित होता था। पर उन्होंने अपनी दिव्य शक्ति से पहचान लिया कि ये कोई सामान्य साधु नहीं, त्रिदेव हैं। उन्होंने अपने तप की शक्ति से त्रिदेवों को नन्हें बालकों के रूप में परिवर्तित कर दिया और उन्हें अपना दूध पिलाया। त्रिदेवियों ने जब यह लीला देखी, तो वे लज्जित हुईं और आ कर माता अनुसुइया से क्षमा याचना करते हुए अपने पतियों को वापस त्रिदेव के रूप में प्राप्त किया और उन्हें वर दे कर गईं। इस कथा पर गम्भीरता से विचार करें, तो हम निष्ठा की अलौकिक शक्ति देखते हैं। बात केवल पतिव्रत धर्म की नहीं है, मनुष्य अपने धर्म पर अडिग रहे, अपने कर्तव्यों पर अडिग रहे, तो वह किसी से पराजित नहीं हो सकता। ईश्वर से भी नहीं।

माता अनुसुइया एक सामान्य नारी थीं। उनका धर्म ही उनकी शक्ति थी। वे अपने धर्म पर अडिग रहीं, तो त्रिदेवियों से भी श्रेष्ठ मानी गईं। उन्होंने त्रिदेवों को पुत्र रूप में पाया। यह धर्म की शक्ति है। इस कथा से एक और मनोरंजक बात उभरती है कि अपने गुणों पर गर्व और अपने से श्रेष्ठ से ईष्र्या का भाव मनुष्य का सहज लक्षण है।
ये गुण मनुष्य में इतने अंदर तक धंसे हुए हैं कि जब वह अपनी बुद्धि से देवताओं का चित्रण करता है, तो अनजाने में ही सही पर उनमें भी यह लक्षण बता देता है। वस्तुत: जीवन में ईष्र्या, लोभ, गर्व आदि अवगुणों का होना बहुत बुरा नहीं है। इनका होना प्राकृतिक ही है, ये अवगुण हममें किसी न किसी रूप में होंगे ही। बुरा है इन अवगुणों को स्वयं पर प्रभावी होने देना, बुरा है इन अवगुणों के दलदल में डूब जाना। बुरी है इनकी अति। इनसे मुक्त होने के सतत प्रयास का नाम ही है जीवन। यह जानते हुए भी कि हम इन अवगुणों से मुक्त नहीं हो सकते, मनुष्य को इनसे मुक्ति पाने का प्रयत्न करते रहना चाहिए।

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