असल में हम यह समझने में भूल करते हैं कि सामान्य जीवन की मर्यादा और युद्ध की मर्यादा में बहुत अंतर होता है। हमारा जो आचरण सामान्य दैनिक जीवन में अच्छा माना जाता है, युद्धभूमि में वही आचरण पराजय का कारण बन सकता है। यदि राम बाली के सामने जा कर युद्ध करते तो अपनी योग्यता (जो उसे वरदान में मिली थी) के कारण वह उन्हें सम्मोहित कर के उनकी शक्ति को आधा कर देता। ऐसी दशा में राम की पराजय और बाली की विजय निश्चित हो जाती। राम का बाली पर छिप कर तीर चलाना अमर्यादित नहीं था, बल्कि राम यदि बाली के सामने जा कर युद्ध करते तो वह युद्ध की मर्यादा के विपरीत आचरण कहलाता।
जीवन में मर्यादित आचरण करना ही धर्म की ओर बढऩे वाला पहला कदम होता है। पर यह समझना होगा कि मर्यादा भी देश, काल और परिस्थितियों के आधार पर तय होती है। हमारे सामने यदि हमारे गुरु या कोई बड़ा बुजुर्ग आए तो उनके पैर छूना दैनिक मर्यादा है, पर यदि हम दस शत्रुओं से घिरे आत्मरक्षा में शस्त्र चला रहे हों और तभी हमारे सामने हमारे गुरु दिख जाएं तो क्या हम शस्त्र रख कर उनके पैर छूने जाएंगे? नहीं! यदि हमने ऐसा किया तो हमारे साथ-साथ गुरु के ऊपर भी प्राणों का संकट आ जाएगा। यहां सामान्य जीवन की मर्यादा हमारे अनुकूल नहीं दिखती, बल्कि अमर्यादित हो जाती है।
मध्यकालीन युद्धों में भारतीय सेना की पराजय का मुख्य कारण यही होता था कि भारतीय सेना युद्धभूमि में भी सामान्य जीवन की मर्यादा का पालन करने लगती थी। यह अनर्थ है। तब हमने क्षमा, दया, त्याग आदि गुणों को कुछ अधिक ही अपना लिया था। क्षमा, दया, त्याग कितने भी बड़े सद्गुण क्यों न हों, हम किसी अयोग्य को इसका दान नहीं दे सकते। यह स्वयं के प्रति अपराध होगा।
रामायण का बाली प्रसंग यह स्पष्ट संकेत करता है कि युद्ध का मुख्य लक्ष्य विजय होता है। जिस युद्ध में आपकी पराजय आपकी सभ्यता पर संकट खड़ा कर देती हो, उस युद्ध में विजय प्राप्त करना ही एकमात्र धर्म होता है।