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अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर हावी रहा ‘नेशन फर्स्ट’

locationजयपुरPublished: Dec 26, 2018 04:10:44 pm

Submitted by:

dilip chaturvedi

नेशन फर्स्ट की नीति का ही असर था कि अमरीका और उत्तर कोरिया आमने-सामने आ गए थे और परमाणु युद्ध की आशंका जाहिर की जा रही थी। लेकिन अमरीका, उ.कोरिया को झुका पाने में सफल रहा।
 

Nation first

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मनन द्विवेदी, विदेश मामलों के जानकार
वर्ष 2018 के दौरान दुनिया के अधिकतर देशों की विदेश नीति का एक सूत्री आधार मंत्र रहा नेशन फस्र्ट। वे इसी मंत्र के इर्द-गिर्द व्यवहार करते रहे। राजनेताओं में अन्य देशों के हितों को कम महत्त्व देते हुए अपने ही देश को सर्वोपरि मानने की प्रवृत्ति देखने को मिली। निस्संदेह इस मामले में अगुआई की संयुक्त राज्य अमरीका ने और इसका कारण बिल्कुल साफ भी था। अमरीका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के चुनाव अभियान का स्लोगन ही अमरीका फस्र्ट रहा था।

इस वर्ष दुनिया की दो बड़ी आर्थिक शक्तियां चीन और अमरीका के बीच जबरदस्त व्यापार युद्ध देखने को मिला। अमरीका ने चीन के उद्योगों पर अनुचित व्यापार व्यवहार और बौद्धिक संपदा अधिकारों के हनन का आरोप लगाते हुए मोर्चा खोल दिया। अमरीका की ओर से चीन की वस्तुओं के इस्तेमाल को हतोत्साहित करने के लिए उन पर विभिन्न प्रकार के कर थोपे गए तो बदले में चीन की ओर से घरेलू उद्योगों के हितों को अमरीकी प्रतिस्पर्धा से संरक्षित करने के नाम पर गैर-कर अवरोधक खड़े किए गए। हकीकत में यह ट्रेड वॉर प्रतिस्पर्धा, प्रतिद्वंद्विता और सहयोग का मिलाजुला रूप ही रही। व्यापार युद्ध के कारण दोनों देशों के बीच बढ़ती खटास दिसंबर की शुरुआत में अर्जेंटीना में हुए जी-20 सम्मेलन के दौरान समाप्त होती दिखी। अमरीकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने एच-1 वीजा की शर्तों को कड़ा बनाया। इससे विशेषतौर पर भारत के पेशेवरों और कंपनियों को भी परेशानी झेलनी पड़ी। चीन और भारत के साथ ही अमरीका ने तो पड़ोसी देशों को भी नहीं बख्शा। अमरीका की ओर से कनाडा और मैक्सिको पर करारोपण (टैरिफ) किया गया।

उधर, चीन ने भी अपनी डेट ट्रैप डिप्लोमेसी जारी रखी। चीन के बारे में प्रचारित है कि वह पहले तो देशों के साथ संबंध बनाता है और फिर उस देश को उधार देकर वहां अपने उद्योग स्थापित करता है। उद्योग स्थापित करने के बाद धीरे-धीरे वहां उसकी सेना पहुंच जाती है। इसी साल सितंबर में जाम्बिया में चीन का इसी मुद्दे पर जोरदार विरोध हुआ। कहा गया कि चीन, अफ्रीका को अपना उपनिवेश बनाना चाहता है। यहां भी नेशन फस्र्ट के तौर पर चीन के विरुद्ध प्रदर्शन हुए। दुनिया के सामने श्रीलंका का उदाहरण भी सामने आया। श्रीलंका जब अपनी उधारी चुका नहीं सका तो उसे अपना एक बंदरगाह चीन के हवाले करना पड़़ गया। कुछ-कुछ ऐसे ही स्वर पाकिस्तान में चीन के विरुद्ध सुनाई देते हैं। पाकिस्तान में भी चीन आर्थिक कॉरिडोर बना रहा है और उसने पाकिस्तान को बड़ा ऋण दिया है। कहा जा रहा है कि पाकिस्तान में इस ऋण को चुका पाने की कुव्वत नहीं है। उसका हाल भी श्रीलंका और जाम्बिया जैसा ही न हो जाए।

स्थितियां ऐसी रहीं कि अमरीका ने पाकिस्तान को ऋण देने की बात तो की लेकिन कड़ी शर्तों के साथ। इसके साथ ही अमरीका और पाकिस्तान के बीच संबंधों में खटास आने लगी। भारत की घेराबंदी के कारण पाकिस्तान का रुख भारत के प्रति और कड़ा हो गया। पाकिस्तान के लिहाज से यह कोई नई बात नहीं है। वहां जो भी प्रधानमंत्री बनता है, वह सेना के दबाव में रहकर इसी तरह की बात भी करता है। भारत-चीन के संबंधों में बहुत गर्मजोशी नहीं रही लेकिन इतना जरूर रहा है कि दोनों पुरानी सभ्यताएं इस बात पर सहमत हैं कि सीमा विवाद बाद में सुलझें, पहले सांस्कृतिक संबंध सुधारे जाएं।

(लेखक, ‘सरन्डिपिटी एंड द अमेरिकन ड्रीमÓ पुस्तक के लेखक। भारतीय लोक प्रशासन संस्थान में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्यापन से जुड़े हैं।)

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