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पूर्वाग्रह से ही राष्ट्रीय व सामाजिक हितों की अनदेखी

locationनई दिल्लीPublished: Jul 24, 2020 06:53:10 pm

Submitted by:

shailendra tiwari

‘पूर्वाग्रह की गांठें’ पर प्रतिक्रियाएं
 

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पुरुष के मन व प्रवृत्ति की विवेचना मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों व घटनाक्रम के संदर्भ में करते पत्रिका के प्रधान सम्पादक गुलाब कोठारी के अग्रलेख ‘पूर्वाग्रह की गांठें’ को प्रबुद्ध पाठकों ने सटीक बताया है। पाठकों का कहना है कि पूर्वाग्रह जैसे गंभीर विषय पर इतनी स्पष्टता पहली बार पढऩे को मिली है और ये पूर्वाग्रह ही हैं, जिनके कारण राष्ट्रीय व सामाजिक हितों की अनदेखी हुई है। पाठकों की प्रतिक्रियाएं विस्तार से
राष्ट्रीय व सामाजिक हितों की अनदेखी
पूर्वाग्रह की गांठें बेहद अच्छा अग्रलेख है। देश और दुनिया में पूर्वाग्रह की गांठों के कारण जहां सामाजिक और राष्ट्रीय हितों की अनदेखी हो रही है, वहीं कानून और संविधान की अवहेलना भी हो रही है। पूर्वाग्रह के कारण विकास की गति रुकती है। महिलाएं भी पूर्वाग्रह के कारण पौरुष भाव से काम करने लगती हैं। जनप्रतिनिधि भी बिकाऊ सामग्री बन जाते हैं। ऐसे में मतदाता ठगा हुआ महसूस करने लगता है। पूर्वाग्रह और महत्वकांक्षा की गांठें कैसे खुलेंगी, ये विचारमंथन का विषय है।
डॉ. जयंतीलाल भंडारी, शिक्षाविद, इंदौर
शासकों के अंतर्मन का बखूबी चित्रण
आपातकाल के प्रति सभी विरोध जताते हैं, लेकिन जब सत्ता हाथ में हो तो कमोबेश गाहे-बगाहे वैसा ही रास्ता खुद भी अख्तियार करते हैं। इससे विकास प्रभावित होता रहा है। कोठारी ने शासकों के अंतर्मन की स्थिति को बखूबी चित्रित किया है। सत्ताधारी नेताओं के मन की गांठें कहीं न कहीं लोकतंत्र पर हावी हो जा रही हैं। बिकाऊ दौर ने तो लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा कर दिया है।
दुर्गाप्रसाद आर्य, समाजसेवी, छतरपुर
राजनीति को समझना नामुमकिन
कोठारी ने स्त्री पुरुष की सोच और गुणों के आधार पर उनकी कार्यप्रणाली और नेतृत्व के दृष्टिकोण पर प्रकाश डालने की अच्छी कोशिश की है, लेकिन कब कौन राजनीति में क्या गुल खिला दे, यह समझना तो नामुमकिन है। ये तो गुल खिलने के बाद ही पता चलता है।
अशोक मिजाज, शायर, सागर
सत्ता की खरीद-फरोख्त पर बेबाक टिप्पणी
कोठारी ने आज स्त्री, पुरुष के प्राकृतिक स्वभाव और सत्ता के लिए राजनीति में पडऩे वाली स्वार्थ की गांठों को लेकर वर्तमान की राजनीति पर तीखा प्रहार किया है। लोकतंत्र में मतदाता के महत्व को नकारते हुए सत्ता प्राप्ति के लिए चल रही खरीद-फरोख्त पर उन्होंने बेबाक टिप्पणी की है। वर्तमान में राजनेताओं को समझना चाहिए कि वह जो कर रहे हैं, उसे बुद्धिजीवी बहुत करीबी और बारीकी से देख रहे हैं।
एमएच अवस्थी, वरिष्ठ साहित्यकार, टीकमगढ़
गांठों में जनता न पिसे
कोठारी ने सही लिखा है कि पराधीनता के निर्णय पर्दे के पीछे होते हैं और गांठें खोलने के निर्णय सार्वजनिक। यह मानवीय स्वभाव है कि जब कुछ चीज मन में चुभती है लेकिन तुरंत व्यक्ति कुछ करने में सक्षम नहीं होता तो मन में गांठ बनाकर रख लेता है। जब उसे मौका मिलता है वह उस गांठ को खोलता है। लेकिन राजनेताओं को इसमें यह भी देखना चाहिए कि उनकी गांठों में जनता पिसती है।
सुरेन्द्र तिवारी, भोपाल सिटीजंस फोरम, भोपाल
बिकाऊ की परिपाटी बदले
आज राजनीति में आने के बाद कोई भी जनता का भला करना नहीं चाहता। कोई अपने बदले के लिए तो कोई पैसों के लिए राजनीति कर रहा है। हर विधायक बिकाऊ है। कीमत लगाने की जरूरत है। यह परिपाटी बदलनी चाहिए, नहीं तो देश का भविष्य अंधकार में हो जाएगा।
नीलेश डोंगरे, अधिवक्ता, बैतूल
पूर्वाग्रह राजनीति का पर्याय
पूर्वाग्रह तो आज की राजनीति का पर्याय बन गया है। जो भी दल आज़ादी के बाद से सत्ता में आए, उन्होंने समय-समय पर अपनी सरकारों को बचाने लिए वो सब किया जो कि संविधान और लोकतंत्र के विरुद्ध था। विशेष रूप से देश में एक बात तो तय है कि पुरुष की अपेक्षा महिलाओं में उनके पीछे राजनीतिक सलाहकार पुरुष अपनी बातें मनवाकर उनका उपयोग करते हैं।
लक्ष्मीकांत दुबे, अधिवक्ता, हरदा
जनमानस की सतर्कता जरूरी
बेहद गंभीर विषय है कि जनप्रतिनिधि निष्ठावान नहीं रहे हैं। खासकर, दलों को लेकर जिस तरह अदला-बदला की जा रही है, उससे लगता है कि जनमानस को अब मतदान के समय विशेष सतर्कता बरतनी होगी।
दिलीप राजपूत, अधिवक्ता, गुना
राजनीतिक सिद्धांतों की कमी
देश में वर्तमान राजनीतिक दल स्वार्थ की राजनीति करने लगे हैं। इसमें सिद्धांतों की कमी साफ दिखाई देती है। अग्रलेख वर्तमान राजनीति की असली तस्वीर को बयां करता है।
सुबोध जोशी, राजनीतिक विश्लेषक, खरगोन
राजनीति में पुरुष हावी
ईश्वर ने स्त्री और पुरुष दोनों को ही समान रूप से तैयार किया था। आज उसकी इस बनावट में बदलाव की बयार है। खासकर राजनीति गलियारों में। यहां पुरुष उन पर कहीं न कहीं हावी होता दिख रहा है। शायद यही कारण है कि स्त्रियां राजनीति में उतनी आगे नहीं दिखती हैं।
अमित अग्रवाल, समाजसेवी, ग्वालियर
मतदान का नहीं रहा महत्व
पिछले एक साल से जो घटनाक्रम सरकार में चल रहा है, उससे ऐसा लगने लगा है कि मतदान का कोई महत्व नहीं बचा। पहले मध्यप्रदेश में सरकार गिराने का खेल हुआ, अब राजस्थान में भी वही दोहराया जा रहा। जनप्रतिनिधि अपनी छवि खऱाब करने के साथ ही जनता का विश्वास भी खो रहे हैं।
सतीशराज श्रीवास, अधिवक्ता, छिंदवाड़ा
पुरुष या महिला से मायने नहीं बदलते
अब तो सत्ता ही सिद्धान्त है। कभी सत्ता को ठोकर मारकर नैतिकता आगे रखने वाले लोगों को देखा और सुना है। सत्ता के शीर्ष पर बैठा राजनेता किसी भी हद तक गिर सकता है। इसके मायने महिला या पुरुष से नहीं बदलते हैं। एक दशक से राजनीति का जो पतन हुआ है, वह निराशाजनक है। इससे देश का भला नहीं होने वाला।
मनोज मधुर, साहित्यकार, मुरैना
लोकतंत्र सत्ता में बैठे लोगों की कठपुतली
मौजूदा समय में लोकतंत्र सत्ता में बैठे लोगों की कठपुतली बन चुका है। जनता सिर्फ तमाशबीन साबित हो रही है। यही कारण है कि आजकल जनप्रतिनिधि से लेकर मंत्री, मुख्यमंत्री तक बिकाऊ सामग्री बनने लगे हैं। यहां सिद्धांतों की बात करने वाला कोई नहीं है।
अखिल वर्मा, रिटायर्ड सीएसपी, जबलपुर
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