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प्रकृति

सृष्टि में महामारी प्राकृतिक प्रकोप कहा जाता है, जो कि वैश्विक समस्या बन जाती है। कई रूपों में इसका क्रम भी सम्वत्सर की भांति नियमित भी होता है।

Apr 03, 2020 / 05:21 pm

Gulab Kothari

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– गुलाब कोठारी

सृष्टि में महामारी प्राकृतिक प्रकोप कहा जाता है, जो कि वैश्विक समस्या बन जाती है। कई रूपों में इसका क्रम भी सम्वत्सर की भांति नियमित भी होता है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण चूंकि प्रकृति ही करती है, अत: हम भी प्रकृति की ही उपज हैं। अत: प्रभावित होना अनिवार्य है। यह चर्चा भी विश्व में बराबर बनी रहती है कि हम प्रकृति से खिलवाड़ कर रहे हैं, उसका अमर्यादित दोहन कर रहे हैं। पर्यावरण दूषित हो रहा है, पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। इसके बावजूद प्रकृति के स्वरूप एवं कार्य की चर्चा नहीं होती। न शिक्षा में और न ही विज्ञान में इसका समावेश है, तब व्यक्ति कहां से शुरू करे!

जब प्रकृति में कुछ नहीं (प्रलय) होता, तब भी एक प्राण तत्त्व रहता है-अक्षर। सृष्टि इसी में लीन होती है और पुन: इसी से सृष्ट होती है। जब भी किसी वस्तु का निर्माण होता है तो पहले उसका केन्द्र बनता है। केन्द्र को ‘हृदय’ कहते हैं। हृदय में हृ-आहरण ***** विष्णु प्राण, द-दयति ***** इन्द्र प्राण तथा य-यमयति-नियंत्रक ब्रह्मा प्राण वाचक है। एक ही प्राण विभिन्न कार्यों के रूपों में विभिन्न नामों से जाना जाता है। हृदय के बाहर अग्नि और सोम सृष्टि क्रम को आगे बढ़ाते हैं। केन्द्र-अहंकृति, परिधि-आकृति एवं मध्य भाग प्रकृति कहे जाते हैं। तीनों एक साथ उत्पन्न होते हैं। अहंकृति सूर्य से, प्रकृति चन्द्रमा से और आकृति का निर्माण पृथ्वी तत्त्व से होता है। हृदय में स्थित ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र प्राणों की शक्तियों को क्रमश: सरस्वती, लक्ष्मी, काली कहते हैं। पुराणों में इन्द्र को महेश कहते हैं। ये तीनों शक्तियां ही रज, सत्व, तम नाम से प्रकृति कही जाती हैं।

सूर्य से आगे मह:लोक से प्रकृति आदि का निर्माण होता है। जीव का निर्माण होता है। ‘ममयोनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन गर्भंदधाम्यहं’ (गीता)। सूर्य जगत् का पिता है। सृष्टि वहीं से मूर्त रूप लेती है। जीव सोम रूप वर्षा के माध्यम से पृथ्वी की अग्नि में गिरता (आहूत होता) है। वनस्पति और औषधियां (स्थूल सृष्टि) एवं प्राणी उत्पन्न होते हैं। ये सब आगे की सृष्टि के अन्न बनते हैं। श्रुति कहती है-‘जीवो जीवस्य भोजनम्’। अन्न की प्रकृति के अनुरूप तीन श्रेणियां हो जाती हैं। गीता कहती है-‘सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण-ये तीनों जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं’।

आयु, बुद्धिबल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाला, रसयुक्त, चिकना, स्थिर रहने वाला अन्न सात्विक कहलाता है। कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, गर्म, तीखे, रूखे, दाहकारक, दु:ख, चिन्ता और रोगों को उत्पन्न करने वाला आहार राजस है। अधपका, रसविहीन, दुर्गंधयुक्त, बासी और अपवित्र भोजन तामसी कहलाता है। (गीता)

जिस अन्न से हमारा निर्माण होता है, वह चार भागों में विभक्त रहता है-दधि, घृत, मधु और अमृत। जिस अन्न में ये चारों रस विकसित रहते हैं, वह जठराग्नि (वैश्वानर) का अन्न होता है। कच्चा अन्न मानव के लिए नहीं होता। पका धान ही अन्न बनता है। आटे में जो कण भाग है, वही दधि भाग है, जो मांस, अस्थि जैसे घन भागों का निर्माण करता है। आटे को जब ओसणा (गोंदा) जाता है, तब लोच (स्नेहन) दिखाई पड़ता है, वही घृत का अंश है। दधि भाग पार्थिव द्रव्य था, घृत भाग आन्तरिक्ष्य द्रव्य है। घृत ज्योतिर्मय है। मधु द्युलोक का रस है। चैत्रमास में सूर्य जब भरणी नक्षत्र पर आते हैं, तब भूमण्डल पर मधु वर्षा होती है। मधुमास काल होता है। सब में एक प्रकार का मिठास आ जाता है। अन्न में रहने वाला मिठास ही मधु का प्रत्यक्ष है।

घृत भाग से रस, रक्त, मज्जा आदि तरल पदार्थों का पोषण होता है, मधुरस से शुक्र का। शुक्र को मधु भी कहते हैं। अमृत रूप चौथे तत्त्व का आगमन परमेष्ठी (जन:) लोक से होता है। यह मन का पोषण करता है। यही अमृत ‘स्वाद’ कहलाता है। हम सोच सकते हैं कि पर्यावरण का परिणाम सबसे पहले हमारी अन्न उत्पादक क्रियाओं पर होता है। कहते हैं-‘जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन’।

सृष्टि के आरंभ काल में कृषि का विकास नहीं हुआ था। चारों ओर जल था, समुद्र थे, रेगिस्तान थे। जहां जो उपलब्ध हुआ, लोग उसी से जीवन यापन करते थे। जब कृषि का ज्ञान हुआ, सभ्यता आगे बढ़ी, अन्न का मानवीय स्वरूप विकसित होने लगा। मनुष्य की प्रकृति बदलने लगी। उसी के साथ आकृति और अहंकृति का स्वरूप भी बदला। समय के साथ मांसाहार का स्थान शाकाहार ने लेना शुरू कर दिया। विशेषकर कृषिप्रधान क्षेत्रों में। आकृति-प्रकृति-अहंकृति में बड़ा परिवर्तन आया। शरीर की त्वचा तक पतली पड़ गई। पाश्विक स्वभाव की आक्रामकता, हिंसा में कमी आई। चूंकि औषधियों में दुग्ध, दही, घृत, मधु, अमृत के अंश पशु शरीर के अनुपात में प्रचुर मात्रा में रहते हैं, अत: स्नेह-माधुर्य का विकास भी स्पष्ट हुआ।

आज प्रकृति के अलावा मनुष्य ने स्वयं अपनी तृष्णा के कारण और विज्ञान के नाम पर अन्न को विष बना लिया। कृत्रिम बीज, कृत्रिम खाद, कीटनाशकों के प्रयोगों ने न केवल अनाज, बल्कि सब्जियों, फलों तथा दूध तक को विषैला बना दिया। तृष्णा का वातावरण शिक्षा ने दिया, विज्ञान ने पोषित किया और मनुष्य कैंसर की चपेट में आ बैठा। हृदय की प्रकृति रूठ गई, शरीर की प्रकृति विकृत हो गई। हर महामारी के लिए हमारे द्वार खुल गए। उधर मांसाहार ने शरीर के कई अवयवों को पाश्विक तत्त्वों से जोड़ दिया। मृत पशु में न रस रहता है, न मन, न स्नेहन और न ही अमृत। अमृत के जाने को ही तो मृत्यु कहते हैं। मृत्यु जीवन का आधार कैसे बन सकता है। मन निर्मल-असंभव!

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