बस्तर और संपूर्ण दण्डकारण्य इलाके में पिछले चार दशक से हो रहे खून-खराबे को रोकने के लिए अब स्थानीय आदिवासी भी सामने आए हैं। गांधी जयंती के दिन दो अक्टूबर से 150 आदिवासी और उनके साथी जो शांति पदयात्रा निकाल रहे हैं उसका मकसद यही है कि नक्सल प्रभावित इस इलाके में बातचीत से कोई रास्ता निकाला जाए।
दरअसल, बस्तर के आदिवासियों के बदौलत ही यहां नक्सली पनप रहे हैं। इसलिए प्रभावित आदिवासियों को ही इस यात्रा से जोड़ा गया है ताकि सरकार और नक्सली दोनों को शांति वार्ता के प्रयासों के लिए तैयार किया जा सके।
दण्डकारण्य के जंगल में वर्ष 1980 में बारिश के बाद सात नक्सलियों के सात दलों ने प्रवेश किया था। तब मध्य भारत में नक्सली आंदोलन की शुरुआत हुई थी। यह अलग कहानी है कि नक्सली मध्य भारत में क्रांति करने नहीं बल्कि मूलत: छिपने के लिए आए और लगभग वर्ष 1990 तक उनके साथ कोई आदिवासी नहीं जुड़ा, जब तक कि सरकार ने नक्सलियों की मदद करने वालों पर हमला करना शुरू नहीं किया।
अस्सी और नब्बे के दशक में बड़ी संख्या में तत्कालीन आंध्रप्रदेश से तेलगुभाषी माओवादी दण्डकारण्य में आते रहे। आंध्र में नक्सली आंदोलन के पतन से यहां इस संख्या में बढ़ोतरी हुई। आज भी माओवादी पार्टी के शीर्ष तेलगु नेता ही हैं। इन लगभग 40 सालों में वे कोई भी स्थानीय आदिवासी नेतृत्व नहीं खड़ा कर पाए।
यही वजह है कि माओवादी पार्टी के पोलित ब्यूरो या सेन्ट्रल कमेटी में छत्तीसगढ़ का कोई भी आदिवासी नहीं है जो आजकल उनका मुख्य केंद्र है। यह बात सही है कि वर्ष 1990 के बाद और खासकर 2004 के बाद स्थानीय आदिवासी बड़ी संख्या में माओवादी आंदोलन से जुड़े हैं। ये आदिवासी ही माओवादी आंदोलन की मुख्य शारीरिक ताकत है। अधिकतर माओवादी तेलगु नेता अब वृद्ध हो गए हैं। उनमें से कई तो अब पहाड़ी और जंगली रास्तों में अधिक चल भी नहीं पाते।
इसका सीधा असर छत्तीसगढ़ के माओवादी आंदोलन में घटते अनुशासन में दिखता है। पहले नक्सली चेतावनी देते थे, अब सिर्फ शक के आधार पर लगभग रोज ही हत्याएं की जा रही हैं। झारखंड में भी माओवादियों के कई धड़े हैं जो आपस में भी लड़ते रहते हैं। बस्तर में भी कुछ दशकों से गैंगवार बढ़ता नजर आता है। ऐसे में शांति प्रयासों का यह सही वक्त है।