इन हजारों लोगों को आखिर किसका डर था। अगर वे भयभीत थे तो फोन नंबर मिलाने और दूसरी तरफ उसके उठने का इंतजार क्यों। बात साफ है कि ये सारे लोग अपने भीतर चल रहे किसी द्वंद्व में बुरी तरह फंसे हुए थे और चाह रहे थे कि कोई उनके मन की थाह ले और उन्हें उनकी परेशानी से बचा ले। मदद की की मांग के लिए हाथ बढ़ाते-बढ़ाते उसे वापस खींच लेने का उनका यह द्वंद्व काफी कुछ कह रहा है। अगर वक्त रहते खामोश रह जाने वाली पुकारों को सुन लिया जाए तो बहुत मुमकिन है कि डिप्रेशन और इस कारण की जाने वाली आत्महत्याओं का सिलसिला थोड़ा थम जाए।
बृहन्मुंबई महानगरपालिका की हेल्पलाइन जैसा वाकया दो साल पहले बच्चों के उत्पीड़न संबंधी शिकायतों के लिए चालू की गई चाइल्ड हेल्पलाइन- 1098 में मिला था। वर्ष 2018 में यह खुलासा होने पर देश में काफी हंगामा मचा था कि बीते तीन सालों में इस हेल्पलाइन पर मंदद की पुकार के रूप में की गई करोड़ों कॉल्स को सिर्फ इसलिए अनसुना कर दिया गया क्योंकि फोन उठाने पर दूसरी तरफ से हैलो का कोई जवाब तत्काल नहीं मिला।
यहां एक अहम सवाल यह है कि इस किस्म की किसी हेल्पलाइन का उद्देश्य आखिर क्या होता है। क्या कोई हेल्पलाइन मदद की किसी अपील पर तभी ध्यान देगी, जब उसे पूरा मामला तफसील से बताया जाएगा। क्या संकेत समझकर वह अपनी ओर से कोई पहल नहीं कर सकती। ‘एमपावर’ और हालिया अतीत के चाइल्ड हेल्पलाइन के प्रकरणों से यह समझा जा सकता है कि हेल्पलाइन चलाने वालों को किस किस्म की ट्रेनिंग की जरूरत है। उन पर काम करने वाले कर्मचारियों को संवेदनशील होने और यह समझने की जरूरत है कि हेल्पलाइन पर आई कोई खामोश कॉल भी मदद की कारुणिक पुकार होती है। जहां तक पुलिस विभाग से जुड़ी हेल्पलाइनों का मामला है तो पुलिस कंट्रोल रूम को इसके निर्देश होते हैं कि ऐसी कॉल्स रिसीव करने वाले पुलिसकर्मी दूसरी तरफ मौजूद व्यक्ति को खुलकर अपनी बात कहने का हौसला दें, जो बच्चा या वयस्क कोई भी हो सकता है। बच्चे कई बार अजीब स्थितियों से घिरे होते हैं, वे अनाथ हो सकते हैं या जीवन निर्वाह के लिए किसी अन्य व्यक्ति पर निर्भर हो सकते हैं जो हो सकता है कि इसके लिए उनका उत्पीड़न करता हो। बच्चों में भी खासकर लड़कियों की यातना की तो कोई सीमा ही नहीं है।
मदद के कई रूप हैं, लेकिन इनकी शुरुआत अक्सर इस संबंध में लगाई गई पीड़ित की गुहार या पुकार से होती है। इस पुकार का एक आधुनिक रूप टेलीफोन की हेल्पलाइन या सेवाओं के टोल-फ्री नंबर हैं। अरसे से देश की जनता पुलिस, फायर ब्रिगेड और एंबुलेंस बुलाने के लिए 100, 101 और 102 – इन हेल्पलाइन नंबरों से परिचित रही है। हाल के वर्षों में मदद और सेवा उपलब्ध कराने के दर्जनों नंबर वजूद में आए हैं, लेकिन पिछले साल इनका एक साझा नंबर 112 भी उपलब्ध करा दिया गया है। वैसे तो हमारा वास्ता ज्यादातर ऐसे नंबरों से पड़ता है जो उपभोक्ता शिकायतों के लिए बैंकिंग, रेलवे से लेकर तमाम तरह के उत्पाद बनाने वाली कंपनियों की ओर से कस्टमर केयर वाले टोल-फ्री नंबर हैं। लेकिन इन्हीं के बीच कुछ हेल्पलाइनें और उनके ऐसे नंबर होते हैं जो मुसीबत में फंसे लोगों की मदद के लिए सरकार या स्वयंसेवी संस्थाओं की ओर से कायम किए जाते हैं। ऐसे ज्यादातर नंबरों और हेल्पलाइनों की भूमिका संकटमोचक की होती है। खास तौर से महिलाओं और बच्चों को शोषण से बचाने वाले, आत्महत्या का विचार आने पर कोई राह सुझाने वाले और इसी तरह की कोई सामाजिक मदद पहुंचाने वाले हेल्पलाइन नंबरों की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन अगर इन हेल्पलाइन नंबरों पर काम करने वाली मशीनरी सरकारी चाल से अपनी ड्यूटी निभाने तक ही सिमट जाए तो सच में उन हेल्पलाइन वर्करों को भी एक हेल्पलाइन की जरूरत है जो यह बताए कि पीड़ित की खामोश पुकार को अनसुना करने का एक मतलब उसे जानते-बूझते हुए मौत के कुएं में धकेलना है।