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समझना होगा बोर्डरूम-ऑफिस में महिलाओं की भूमिका का महत्त्व

सच यह है कि महिलाएं सिर्फ संख्यात्मक उपस्थिति न दिखा कर संस्था को सफल बनाने में सक्षम भूमिका निभा रही हैं। अधिकतर महिला बोर्ड सदस्यों के मुताबिक, वे सीधे-सरल समाधान लेकर आती हैं। पर अब भी हमारी जेंडर रूढ़ियां, मान्यताएं व सामाजीकरण, उनकी योग्यता पर प्रश्नचिह्न लगाता है।

Jun 20, 2022 / 09:14 pm

Patrika Desk

प्रतीकात्मक चित्र

प्रतीकात्मक चित्र

अर्चना सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर, गोविंद बल्लभ पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट, प्रयागराज

महिलाएं अपने स्त्रीत्व के गुणों के कारण जन्मजात मैनेजर मानी जाती हैं, पर जब उन्हें शीर्ष पर बैठाने की बात होती है तो हम उनके इन्हीं गुणों, उनके जीवन के अनुभवों को बाधा के रूप में देखते हैं। उनकी क्षमता, उनके कार्यालय में देर तक उपस्थिति को लेकर सामाजिक बाधाएं, पारिवारिक दायित्व, उनकी कार्यशैली सब पर प्रश्न खड़े किए जाते हैं।
हमारी दृष्टि में नेतृत्व आक्रामक और प्रभावी होना चाहिए। महिलाएं इन गुणों से वंचित होने के कारण इस दौड़ से बाहर हो जाती हैं। वे धैर्य, सौम्यता और कोमलता की प्रतीक होती हैं और अच्छी नेतृत्वकर्ता नहीं हो सकतीं। इनके रोजमर्रा जीवन के अनुभव इनकी कार्यशैली, इनका स्वभाव कारपोरेट दुनिया के लिए सटीक नहीं होता।
नब्बे के दशक से पहले महिला नेतृत्व भी पूर्व प्रचलित शैलियों का अनुपालन कर रहा था जो पुरुषत्व से भरी थीं। ये महिलाएं भी कॅरियर को प्राथमिकता देती थीं, परिवार या विवाह इनकी द्वितीयक प्राथमिकता थी। ये महिलाएं पुरुषों की आक्रामक नेतृत्व शैली अपनाती थीं जो उनके ही सहकर्मियों व कर्मचारियों को भी स्वीकार नहीं थी। इन महिलाओं को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता था। टीम को भी उनकी क्षमताओं पर अविश्वास होता था, पर यह समस्या हमारे दृष्टिकोण की समस्या है।
एक नया विज्ञापन जो एक 14 महीने के अंतराल के बाद लौटने वाली एक प्रोफेशनल को दिखाता है, हमारी पुरानी मान्यताओं पर प्रश्न खड़ा करता है। हमारे समाज में जहां मां और मातृत्व को महिमामण्डित किया जाता है, पर उसके इस विशेष अनुभव को और इस दौरान सीखे गए कौशल का सही रूप में मूल्यांकन नहीं किया जाता। जबकि यह विज्ञापन उन स्किल्स की बात करता है जो एक मां उन 14 महीने में सीखती है। ये एक नई दृष्टि है, नई समझ है, उस समय को देखने की कि जिन सॉफ्ट स्किल्स की हम कर्मचारियों को ट्रेनिंग देते हैं, ये सॉफ्ट स्किल्स मां एक बच्चे को पालने के दौरान मल्टीटास्किंग, सहनशीलता, धैर्य, नई-नई चुनौतियां इन सबको कैसे जीवन में उतारती है और उस विज्ञापन में इन सारे कौशल को उस महिला ने अपनी उपलब्धि के रूप में दिखाया है।
हमारी सोच, हमारा सामाजीकरण केवल वैतनिक कार्यों को काम मानता है। अवैतनिक कार्यों का कोई मूल्य नहीं होता है। व्यावसायिक जीवन में मातृत्व अवकाश या कॅरियर गैप बहुत नकारात्मक प्रभाव दिखाता है। इस नए विज्ञापन में अवकाश के कारण और उस अंतराल में विकसित नई क्षमताओं को उपलब्धियों के रूप में रेखाकित किया गया है। नब्बे के दशक के बाद महिलाओं ने उन सभी अदृश्य बेडिय़ों को जो ग्लास-सीलिंग के रूप में जानी जाती है, उन्हें तोडऩे का प्रयास किया है। आंकड़े बताते है कि 95 के बाद महिला नेतृत्व एक नए ढंग से उभरा है। रोशनी नादर (अध्यक्ष, एचसीएल), जयश्री उलाल (सीईओ, अरिस्ता नेटवक्र्स), पद्मश्री वारियर (सीईओ, फैबल), किरन मजूमदार शॉ (अध्यक्ष, बायोकॉन) और वनिता नारायणन (एमडी, आइबीएम इंडिया) ऐसी महिलाएं हैं जिन्होंने सफलता के झंडे गाड़े हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, 17 प्रतिशत महिलाएं बोर्ड में हैं पर नेतृत्व के रूप में 11 प्रतिशत ही हैं। तब भी भारत की स्थिति अन्य एशियाई देशों से बेहतर है, क्योंकि कम्पनी एक्ट 2013 के अनुसार बोर्ड में कम से कम एक महिला की उपस्थिति अनिवार्य है। अब भी इस कागजी निर्णय को जमीन पर लाने में बहुत सारी बाधाएं हैं। स्वाति पीरामल (निदेशक, एफएमसीजी कंपनी नेस्ले) कहती हैं कि अधिकतर बोर्ड में अकेली महिला रहती थी और यह बहुत कठिन होता है कि आप अकेली महिला हैं और कोई नई बात करती हैं। यह अनुपस्थिति केवल क्षमता के कारण नहीं है। सच यह है कि महिलाएं केवल संख्यात्मक उपस्थिति न दिखा कर संस्था को सफल बनाने में सक्षम भूमिका निभा रही हैं। अधिकतर महिला बोर्ड सदस्यों के मुताबिक, महिलाएं सीधे-सरल समाधान लेकर आती हैं।
एक नई नेतृत्व की शैली जिसको 90 के बाद मान्यता मिल रही है उस शैली के गुण सौम्यता, सहनशीलता, कठिनाई के समय धैर्य है। केपीएमजी इंटरनेशनल एक ग्लोबल नेटवर्क प्रदान करने वाली कंपनी है जो लोगों को ऑडिट, टैक्स एवं बैंकिंग से संबंधित सलाह देती है। इसके एक अध्ययन के अनुसार, महिलाओं के सामाजीकरण की प्रक्रिया में नेतृत्व के ये सभी गुण बचपन से ही विकसित किए जाते हैं। नई शैली की परख के लिए कम्पनियों को नवोन्मेशी होना पड़ेगा। क्योंकि तभी वे इन गुणों – जैसे कभी न हारने का गुण, जुझारू होने का गुण – का मूल्य समझ पाएंगी। कोई भी संस्थान लोगों के सामूहिक योगदान से बनता है। अब ये संस्थाएं जैसे ही वैश्विक दुनिया के लिए अपने दरवाजे खोल रही हैं तो अब नेतृत्व की परम्परागत जरूरतों जैसे रिस्क लेने की क्षमता, साहस, दूरदृष्टि से ज्यादा नई तरह की जरूरतें उनके सामने आ रही हैं, जैसे साथ में लोगों को जोड़कर चलना, अधिक से अधिक समावेश करने की क्षमता। संस्थाओं को लेकर एक तरह के जज्बाती जुनून की जरूरत है। महिलाएं इन गुणों के लिए अधिक अनुकूल मानी जाती हैं। दुखद है कि इन सब क्षमताओं के बाद भी महिला नेतृत्व अभी उंगलियों पर ही गिना जा सकता है। हमें अपनी चयन प्रक्रिया, प्रोन्नति प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका के महत्त्व को रेखांकित करना होगा। महिला नेतृत्व न केवल सक्षम महिलाओं के एक बड़े समूह के लिए प्रेरणा होता है, बल्कि संस्था के लिए भी लाभकारी होता है।
यह सच है कि महामारी के दौरान महिलाओं पर बुरा असर पड़ा है। वे कई बार छंटनी की शिकार हुई हैं। बहुत से मामले में पुरुषों ने महिलाओं को वापसी पर बाध्य किया है। पर मैकिंसे के एक रिपोर्ट के अनुसार महिला अधिकारी अपने कर्मचारियों के लिए कोविड के दौरान वेतन और सुविधाजनक योजनाएं बनाकर अच्छी नेतृत्वकर्ता सिद्ध हुई हैं। पर अब भी हमारी जेंडर रूढिय़ां, मान्यताएं और सामाजीकरण, उनकी योग्यता पर प्रश्न चिह्न लगाता है। इन ढेर सारी चुनौतियों के बीच महिला नेतृत्व सक्षम और सफल तरीके से आगे बढ़ रहा है। बस हमें अपनी दृष्टि विकसित करनी होगी जो कि क्षमताओं को पहचान सके, उन्हें परख सके। उन्हें परखने के लिए हमें नए पैमाने गढ़ने होंगे।

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