scriptन परीक्षा का ठिकाना न नौकरी का | Neither the future of the exam nor the job | Patrika News

न परीक्षा का ठिकाना न नौकरी का

locationनई दिल्लीPublished: Jul 16, 2020 12:22:40 pm

Submitted by:

shailendra tiwari

लॉकडाउन के बीच लाखों युवाओं ने नौकरी गंवा दी है। ऐसे हालात में कोरोनाकाल में पासआउट बच्चों के लिए नौकरी कहाँ से आएगी?

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महेश तिवारी, सामयिक विषयों पर लेखन

कोरोना संकट ने कुछ जख्म ऐसे दिए हैं जिसकी भरपाई निकट भविष्य में होना मुश्किल है। वाकई में देखें तो इस त्रासदी की मार सबसे ज्यादा मार प्रवासी मजदूरों और अन्य कामगारों पर पड़ी है। लेकिन इस बीच छात्रों की चर्चा होना भी प्रासंगिक हो जाता है। आज उच्च शिक्षा के अंतिम वर्ष के बच्चे चौतरफा समस्याओं से घिरे हैं। उनकी परीक्षा को लेकर आए दिन नए-नए फरमान आते हैं। नौकरी की गारंटी तो सामान्य समय मे कोई शिक्षण संस्थान और शैक्षिक व्यवस्था नहीं लेती थी, फिर कोरोना काल में तो उम्मीद करना अपने आप को धोखे में रखने वाली बात है। ऐसे में बच्चे अवसाद का शिकार नहीं होंगे तो क्या होंगे?

न नौकरी का ठिकाना है, न परीक्षा का, ऊपर से समस्या इस बात की भी है कि सामाजिक और आर्थिक दबाव है सो अलग। मान लिया सामान्य शिक्षा ग्रहण करने वालों के लिए कोई समस्या की बात नहीं, लेकिन जिस छात्र ने लाखों रुपए का कर्ज लेकर
रोजगारपरक शिक्षा ग्रहण की, उसका क्या? बीते दिनों सीएमआईई की एक रिपोर्ट आई, जिसमें बताया गया कि कोरोना महामारी के बीच 20 से 30 साल के 2.7 करोड़ युवाओं ने अपनी नौकरी गंवा दी है। फिर ऐसे हालात में कोरोना काल में पासआउट बच्चों के लिए नौकरी कहाँ से आएगी? सवाल यह भी है और नौकरी मिलेगी नहीं। फिर जो युवा चार-पांच साल से जमीन, घर गिरवी रखकर सुनहरे भविष्य का सपना पाले हुए थे, उनके परिवार और उनका क्या होगा? क्या कभी इस बारें में हमारी रहनुमाई व्यवस्था ने
सोचा है? इसके अलावा क्या यह शिक्षण संस्थानों और हमारी व्यवस्था का कार्य नहीं कि बच्चों को ऐसा माहौल दिया जाएं।
जहां वे यह समझ पाएं कि किस क्षेत्र में आगे चलकर सफलता प्राप्त कर सकते, बिल्कुल शिक्षण तंत्र और व्यवस्था का यह दायित्व
है कि बच्चों को उनकी प्रतिभा से रुबरु कराएं। लेकिन हमारे यहां तो चलन बनता जा रहा सिर्फ और सिर्फ डिग्री धारी बेरोजगार पैदा करने और पढ़ाई के नाम पर लाखों रुपए ऐंठने का। तभी तो कई रिपोर्ट्स आती, जो कहती हैं कि हमारे यहां के उच्च शिक्षित युवाओं के भीतर काबिलियत ही नहीं। ऐसे में प्रश्न यही कि एमबीए और बीटेक किए हुए युवक अगर अपने प्रोफेशनल के साथ न्याय नहीं कर पा रहा, फिर चार-पांच वर्षों तक बच्चों को सिखाया और पढ़ाया क्या गया? बहस का केंद्र तो यह होना चाहिए, लेकिन हमारे यहां की रवायत ही कुछ अलग है। हम समस्या की जड़ में जाकर बात करने में विश्वास ही नहीं रखते।

चलिए कुछ सवाल के माध्यम से विषय की गंभीरता को समझते हैं। आखिर क्या कारण है, कि हम शोध के मामले में विश्व के अधिकतर देशों से पिछ?े हुए हैं? क्या हम वर्षों पुराने पाठ्यक्रम के भरोसे ही आत्मनिर्भर भारत का सपना बुन रहें हैं? और क्या कारण है जिस अंग्रेजी शिक्षा को हम स्कूल के शुरुआती दिनों से लेकर कॉलेज तक पढाते रहते हैं वह अंग्रेजी हम ठीक से बोल पाते और न ही वह रोजगार के काबिल बना पाती? अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वे के मुताबिक 2018-19 में देशभर में 3.74 करोड़ छात्र उच्च शिक्षा हेतु पंजीकृत होते हैं। यही नहीं प्रतिवर्ष देश में डिग्री लेकर निकलने वाले छात्रों की संख्या 91 लाख के करीब होती। ऐसे में सिर्फ सियासतदानों के राजनीतिक रैलियों में युवा देश होने का जिक्र होने मात्र से लोकतांत्रिक जिम्मेदारियों की पूर्ति नहीं होने वाली और अगर ऐसी ही रवायत पर देश चल निकला है। फिर यह देश के भविष्य के साथ- साथ वर्तमान के साथ मजाक है। आज कोरोना काल जैसी विकट परिस्थितियों में अंतिम वर्ष के छात्रों के हाल ऐसे हैं कि न उनका संस्थान उनसे संपर्क करने को राजी और न ही तंत्र! सरकारी तंत्र का रवैया तो माशाअल्लाह है, आएं दिन अफसरशाही और सरकारी तंत्र के निर्णयों के भंवर में फंसकर उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाला छात्र ***** रहा है। कोरोना से घबराए हुए तो सब हैं ही, लेकिन उच्च शिक्षा से जुड़े अंतिम वर्ष के छात्रों की समस्याएं समाज के अन्य तबके से कहीं अधिक है। उसे अपने भविष्य से लेकर वर्तमान तक सब अंधेरे की गर्त में जाता दिख रहा है।

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