नेपाल में राजनीतिक अखाड़े में एक बार फिर सियासी दांवपेचों की तैयारी की जा रही है। पिछले सप्ताह ही नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने मंत्रिमंडल विस्तार किया था। हैरत की बात यह है कि मंत्रिमंडल विस्तार के कुछ दिन बाद ही नेशनल असेंबली को भंग करते हुए प्रतिनिधि सभा और प्रांतीय सभा के चुनावों की घोषणा कर दी गई। नेपाल में चुनावी प्रक्रिया शुरू भी हो गई है। यह पहली बार होगा जब नेपाल में लोकतंत्र बहाली के बाद चुनाव होने जा रहे हैं। इससे पूर्व जो भी चुनाव हुए वे या तो राजतांत्रिक प्रणाली के तहत हुए या पुराने संविधान के अन्तर्गत।
वर्ष २०१५ में नया संविधान पारित होने के बाद नेपाल पूर्णत: लोकतांत्रिक देश बन चुका है। अब इसे रिपब्लिक ऑफ नेपाल के नए नाम से जाना जाता है। नए संविधान के अनुच्छेद ८४ के अन्तर्गत नेपाल में द्विसदनीय व्यवस्था को अपनाया गया है। यानी एक राष्ट्रीय सभा और दूसरी प्रांतीय सभा। गौरतलब है कि राष्ट्रीय सभा की २७५ सीटों पर चुनाव होने है। इनमें से १६५ सीटों पर ‘फस्र्ट पास्ट द पोस्ट’ के जरिए चुनाव होने है। यानी अन्य देशों के चुनावों की तरह जिस उम्मीदवार ने सर्वाधिक मत प्राप्त किए वो ही जीत जाता है। वहीं शेष ११० सीटों पर चुनाव अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार करवाया जाएगा। अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अपनाने का मुख्य उद्देश्य सदन में अल्पसंख्यक वर्ग खासकर महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है। हालांकि नेपाल में अचानक चुनाव की घोषणा ने सभी को चौंका दिया है।
मंत्रिमंडल विस्तार के बाद यह माना जा रहा था कि सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी। मंत्रिमंडल विस्तार में कमल थापा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी के चार मंत्रियों को शामिल किया गया था। राजनीतिक क्षेत्रों में इस सियासी उलटफेर के अलग-अलग अर्थ लगाए जा रहे हैं। यह भी माना जा रहा है कि सत्तारूढ़ नेपाली कांग्रेस को आशंका थी कि उनको समर्थन दे रही प्रमुख सहयोगी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) किसी भी समय अपना समर्थन वापस ले सकती है। इससे नेपाल की जनता को फिर से राजनीतिक अस्थिरता की तरफ धकेला जा सकता है।
इसका प्रमुख कारण रहा पुष्प दहल कमल प्रचंड के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) जिसे माओवादी सेंट्रल भी कहा जाता है, का सत्ता में शामिल रहते हुए प्रमुख विपक्षी राजनीतिक दल केपी ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूएमएल) से चुनावी गठबंधन करना। राजनीतिक हल्कों और नेपाल की आम जनता द्वारा इस गठबंधन को राजनीतिक अवसरवादिता बताते हुए सवाल उठाए जा रहे हैं कि एक राजनीतिक दल पक्ष और विपक्ष दोनों में एक साथ कैसे रह सकता है? यानी सत्ता में भी है और चुनावी फायदे के लिए विपक्ष से भी गठबंधन में है। उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले पुष्प दहल प्रचंड ने गठबंधन की शर्तों के अनुरूप यह कहते हुए प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दिया था कि मेरा नौ महीने का कार्यकाल समाप्त हो गया है और देउबा को प्रधानमंत्री बनाने में पूरा समर्थन दिया था। प्रचंड के इस कदम से उनकी लोकप्रियता में काफी इजाफा हुआ था और उन्हें नैतिकवादी बताया जा रहा था। लेकिन, इस गठबंधन ने प्रचंड की उस कुर्बानी को बौना साबित कर दिया और उनकी छवि एक अवसरवादी राजनेता की बना दी।
यूं तो नेपाल में सभी दल चुनावी जोड़-तोड़ की राजनीति में लिप्त हैं। नेपाल में इसी वर्ष अप्रेल-जून में स्थानीय निकाय चुनाव हुए थे। स्थानीय निकाय चुनावो के नतीजों के आधार पर सभी राजनीतिक दल अपने-अपने समीकरणों की तरफ बढऩे लगी। हालांकि इन चुनावों में केन्द्र में सत्तारूढ़ नेपाली कांगे्रस सबसे बड़ा दल बनकर उभरी थी। और वामपंथी दल पूरे नेपाल में खासकर तराई क्षेत्रों में काफी पिछड़ गए थे। प्रमुख मधेशी दल, फेडरेल सोशलिस्ट फॉरम ऑफ नेपाल दूसरा सबसे बड़ा दल बनकर उभरा था। वहीं मधेशियों का दूसरा सबसे बड़ा दल राष्ट्रीय जनता पार्टी (नेपाल) तीसरे बड़े दल के रूप में उभर कर सामने आई। इन नतीजों से वामपंथी दलों में बौखलाहट है। इसी परिपे्रक्ष्य में सभी प्रमुख वामपंथी दलों ने सम्मिलित होकर अपना गठबंधन बनाया। इसे कम्युनिस्ट एलयांस नाम दिया गया। वहीं दूसरी ओर नेपाली कांग्रेस ने भी वाम दलों की चुनौती से निपटने के लिए लोकतांत्रिक गठबंधन बनाया।
मधेशी राजनीति में एक-दूसरे की प्रमुख विरोधी रही राष्ट्रीय जनता पार्टी और फेडरेल सोशलिस्ट पार्टी ने भी एकसाथ आकर मधेशी गठबंधन बनाया है। इन गठबंधनों से जो परिदृश्य उभर कर सामने आ रहा है उससे साफ होता है कि जो दल चीन के समर्थक है और भारत का विरोध करते रहे हैं वे एकसाथ आ गए हैं। दूसरा जो उदारवादी गठबंधन बना है वह भारत का महत्व जानते हुए उससे अच्छे सम्बध रखने का हिमायती है। मेरा मानना है कि अगर नेपाली कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल साथ मिलकर चुनाव लड़ते तो जीत की संभावना ज्यादा होती। लगातार उतार-चढ़ाव के दौर के बाद समूचे क्षेत्र के लिए यह आवश्यक है कि नेपाल में एक स्थायी और लोकतांत्रिक सरकार बने जिससे वहां के नागरिक शांति का जीवन व्यतीत कर सकें।