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नए बंधुआ

राजस्थान सहित अनेक राज्यों ने बजट की कमी का रोना रोते हुए सरकारी कर्मचारियों की भर्ती पर अपेक्षित रोक लगा रखी है। एक तरफ भर्ती नहीं हो रही, दूसरी ओर सेवानिवृत होने वाले अफसरों को सेवा विस्तार मिलता जा रहा है।

जयपुरJan 07, 2020 / 10:30 am

भुवनेश जैन

samvida karmi

भुवनेश जैन
राजस्थान सहित अनेक राज्यों ने बजट की कमी का रोना रोते हुए सरकारी कर्मचारियों की भर्ती पर अपेक्षित रोक लगा रखी है। एक तरफ भर्ती नहीं हो रही, दूसरी ओर सेवानिवृत होने वाले अफसरों को सेवा विस्तार मिलता जा रहा है। कर्मचारियों की कमी दूर करने के लिए एक गली निकाल ली गई है- संविदा यानी कॉन्ट्रेक्ट पर नियुक्ति की।

भारत सरकार और सभी राज्य सरकारों ने सरकारी कामकाज पूरा करने के लिए भर्ती नीति और नियम बना रखे हैं। पदों की संख्या तय है। नए कार्य जुड़ने पर पदों की संख्या घट-बढ़ जाती है। पर दुर्भाग्य यह है कि निर्धारित पदों में से हजारों पद खाली रह जाते हैं। जो भी ‘भर्तियां’ की जा रही हैं- संविदा पर की जा रही हैं। अकेले राजस्थान में आज करीब एक लाख 62 हजार कर्मचारी संविदाकर्मी के रूप में नियुक्त हैं। इन्हें तरह-तरह के नाम दे रखे हैं- विद्यार्थी मित्र, पंचायत सहायक, लोकजुंबिशकर्मी, पैराटीचर्स, एनआरएचएम कर्मी, प्रेरक, फार्मासिस्ट, जनताजल योजना कर्मी, मनेरगा कर्मी आदि-आदि। जिन विभागों में संविदाकर्मियों की संख्या ज्यादा है, उनके बारे में समझ लेना चाहिए कि उसके मंत्रियों में दम नहीं है या विभाग के प्रमुख अफसर जरूरत से ज्यादा ‘होशियार’ है।

बहुत से संविदाकर्मी बरसों से काम कर रहे हैं, लेकिन सरकारी कर्मचारियों के अनुसार वेतन व अन्य सुविधाओं के लाभ से वंचित हैं। जब भी नई सरकार आती है, उन्हें आगे स्थाई करने की गाजर लटका दी जाती है। कुछ विभागों में अनुभव, बोनस अंक जैसी गलियां निकाल कर संविदाकर्मियों को स्थाई किया गया है, पर अधिकांश सरकारी शोषण का शिकार हैं।

होना यह चाहिए कि एक समय सीमा निर्धारित कर उस समय तक भर्ती संविदाकर्मियों को स्थाई किया जाए और भविष्य में इस बात पर कड़ाई से रोक लगाई जाए कि संविदा पर भर्ती नहीं होगी। अदालतों से भी समय-समय पर इस तरह के आदेश आए हैं। लेकिन होता कुछ नहीं है। बड़े अफसरों के लिए बजट की कमी कहीं आड़े नहीं आती। समय-समय पर पदोन्नति, वेतन वृद्धि, बंगले, वाहन आदि और अन्य सभी लाभ मिलते हैं। यहां तक कि सेवानिवृत होने वाले बड़े अफसर भी कहीं न कहीं ‘एडजस्ट’ कर दिए जाते हैं। उनकी सुविधाओं में कोई कटौती नहीं होती। ऐसे अफसरों के घरों में संविदाकर्मी चाकरी करते नजर आते हैं। इससे यह भी पता लगता है कि जन प्रतिनिधि नहीं, बल्कि अफसर ही सही मायने में सरकारें चलाते हैं।

दूसरी ओर, संविदा पर काम करने वालों की स्थिति दैनिक मजदूरी करने वालों से भी खराब है। वेतन के नाम पर न्यूनतम राशि, अनिश्चित भविष्य और अपने-अपने विभागों में बंधुआ मजदूरों सा व्यवहार। बहुत सी जगह ऐसे कर्मचारी अफसरों के निजी काम करते नजर आते हैं। आज राजस्थान में आठ लाख से ज्यादा कर्मचारी हैं, इनमें से 20 प्रतिशत से ज्यादा संविदा पर काम कर रहे हैं। भर्ती नियमों के अनुसार नियुक्तियां होती नहीं है। अफसर अलग-अलग मदों में से पैसा निकाल कर संविदा पर कर्मचारी रख लेते हैं। कई बार रिकार्ड में उनके नाम दर्शाए ही नहीं जाते।

अफसरों की चलती रही तो ‘संविदा नियुक्ति’ जैस तदर्थ (एडहॉक) फैसलों से ही देश और राज्य चलते रहेंगे। इच्छा शक्ति तो चुनी हुई सरकारें ही दिखा सकती हैं। अब यह सरकारों पर निर्भर है कि वे अफसरों के नीचे रहना चाहती है या ऊपर।

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