केमिकल की बौछार
कोरोना का संकट पैदा होने के साथ तकरीबन पूरी दुनिया में जो हिदायतें हर स्तर से दी गईं, उनमें चेहरे पर मास्क पहनने और हाथों को साबुन या अल्कोहलयुक्त हैंड सैनेटाइजर से धोने को सबसे मुफीद ठहराया और पाया गया है। लेकिन जरूरी नहीं कि हम हाथों के संपर्क के जरिए ही वायरस की जद में आएं, लिहाजा सावधानी के तौर पर प्रायः दुनिया के हर शहर में गली-गली सोडियम हाइपोक्लोराइट समेत कई अन्य रोगाणुनाशक रसायनों का भारी मात्रा में भारी-भरकम स्प्रे की मदद से छिड़काव किया जा रहा है। इस काम में विविध तरह की मशीनें लगाई गईं। कुछ शहरों में सड़कों के ऊपर आसमानी पाइप लगाकर उनके छिद्रों से नीचे गुजरने वाले हर वाहन पर इस केमिकल की बौछार के प्रबंध भी किए गए। इनकी देखा-देखी भारत में भी सड़कों, गली-मोहल्लों , कारों, दुकानों के शटर तक पर ऐसी रासायनिक बमबारी की जाती दिखाई दी है। यूपी के बरेली में तो वहां के प्रशासन ने अन्य जगहों से आए मजदूरों पर सोडियम हाइपोक्लोराइड केमिकल का जबर्दस्त स्प्रे करवा दिया, जिससे कई मजदूरों की हालत खराब हो गई और उन्हें अस्पताल में भर्ती तक कराना पड़ा। इसके अलावा सरकारी और निजी कार्यालयों को भी जहां-जहां खोला गया, वहां प्रायः सभी जगहों को सोडियम हाइपोक्लोराइट के स्प्रे से सैनिटाइज करने की सावधानी बरती गई है।
लेकिन क्या यह रासायनिक बमबारी वास्तव में वायरस का खात्मा करती है। कहीं यह महज एक झूठी तसल्ली तो नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के ताजा निर्देशों से साफ है कि इस किस्म के छिड़काव से लोगों को एक झूठे दिलासे के अलावा कुछ नहीं मिला है क्योंकि जिन सतहों पर इसका स्प्रे किया जा रहा है, उनमें से ज्यादातर पर तो कोरोना वायरस ठहरता ही नहीं। इसलिए ऐसे रासायनिक छिड़कावों के वे दूसरे हानिकारक प्रभाव जरूर निकल सकते हैं, जो इंसानी सभ्यता के लिए सबसे बड़ी मुश्किल के तौर पर उभरकर सामने आए हैं। सिर्फ सोडियम हाइपोक्लोराइट के खतरों की बात करें, तो ब्लीचिंग की प्रॉपर्टी रखने वाले इस केमिकल के सीधे संपर्क में आना किसी भी इंसान के लिए घातक साबित होता है। लेकिन समस्या अकेले सोडियम हाइपोक्लोराइट की नहीं है। खूंखार बैक्टीरिया और बेरहम वायरसों से मुकाबले की जंग को इस कदर रसायनों के हवाले कर दिया गया है कि हम इंसानों की जिंदगी हर मोड़ पर किसी न किसी घातक केमिकल पर ही आश्रित हो गई है। रोजमर्रा जीवन में ऐसी असंख्य मिसालें मिल जाएंगी, जिनसे पता चलता है कि साइंस की तरक्की के नाम पर हमें ऐसे केमिकल्स का गुलाम बना दिया गया है, जो असल में फायदे की बजाय हमारा नुकसान कर रहे हैं और हमें इसका अहसास तक नहीं हो रहा है।
एक उदाहरण यात्री विमानों में मक्खी-मच्छरों से निजात पाने के लिए किए जाने वाले रिप्लेंट के स्प्रे का है। चार साल पहले 2016 में राष्ट्रीय हरित पंचाट (एनजीटी) ने ऐसे मामलों का संज्ञान लेकर एयरलाइंस कंपनियों को निर्देश दिए थे कि यात्रियों की मौजूदगी में इस किस्म के रसायनों का छिड़काव विमान के अंदर हरगिज न हो। पिछले साल यानी 2019 में एनजीटी के निर्देशों के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने छह सदस्यीय विशेषज्ञ कमेटी बनाकर यह पता लगाने को कहा था कि यात्रियों के मौजूद रहते विमानों को भीतर से सैनिटाइज करने के लिए स्प्रे करने से मानव स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता है। विमान यात्रा में लोगों की सेहत पर कोई विपरीत असर न पड़े- यह तो ठीक है, लेकिन समस्या यह है कि इस मामले लोगों को अन्य रासायनिक वर्षों के सामने निरुपाय छोड़ दिया गया है।
ये कीटनाशक-रोगाणुनाश रसायन तमाम तरह की शक्लों में दुनिया के कोने-कोने में पहुंच रहे हैं, क्योंकि घर हो, दफ्तर हो या विमान-रेलगाड़ी, लोगों को मच्छर-मक्खी ही नहीं, कॉक्रोच, छिपकली, दीमक आदि सभी कीटों से मुक्ति चाहिए। हाथ-पांव धोने से लेकर नहाने के साबुन में भी कीटाणुओं को मारने की ताकत होनी चाहिए और कपड़ों और बर्तनों को साफ करने वाले पाउडर और डिशवॉशर आदि में सिर्फ बर्तन चमकाने की खूबी न हो, बल्कि वे कीटाणुओं की धुलाई भी करते हों- यह अपेक्षा भी अब की जाती है। इन्हें बनाने वाली कंपनियां जोरशोर से यह प्रचार भी करती हैं कि उनके उत्पादों में हर किस्म के कीटों-कीटाणुओं को मारने की चौगुना ताकत है।
कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल हमारी सेहत की बलि भी ले रहा है- इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। हर जगह कीटनाशकों के इस्तेमाल की सलाह तो दी जा रही है, पर यह कोई नहीं बता रहा कि कितनी मात्रा तक इनका इस्तेमाल सुरक्षित है और कहीं इनका कोई विपरीत प्रभाव हमारी सेहत पर तो नहीं पड़ रहा है? हालांकि एकाध अवसरों पर अदालतें यह बता रही हैं कि इन चीजों का इस्तेमाल कब किया जाए, जैसे वर्ष 2015 में न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार की अगुवाई वाली नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की बेंच ने अमेरिका के टेक्सास में बेलर अस्पताल में कार्यरत न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. जय कुमार की याचिका पर एयरलाइंसों को जारी निर्देश में कहा था कि जब यात्री विमान में मौजूद हों, तो उनके अंदर भूले से भी कीटनाशकों का छिड़काव नहीं किया जाए क्योंकि इसका असर मच्छरों के साथ इंसानों पर भी हो सकता है, पर यह नहीं बताया था कि यह छिड़काव असल में जानलेवा है। जबकि डॉ. जय कुमार की याचिका में एक बड़ी बात यह भी थी कि मक्खी-मच्छर मारने वाले ऐसे कीटनाशकों में मौजूद फीनोथ्रीन (ऑर्गेनो फॉस्फोरस न्यूरोटॉक्सिन) इंसानों की सेहत को भारी नुकसान पहुंचाता है क्योंकि इससे उनमें कैंसर, पार्किन्सन और याददाश्त की कमजोरी आदि बीमारियां हो सकती हैं।
हमारे जीवन इन खतरनाक रसायनों की घुसपैठ ऐसे गुपचुप ढंग से हुई है कि जाने कब शहरों के अलावा गांव-कस्बों में भी अब मच्छरदानियों का स्पेस खत्म हो गया- इसका पता ही नहीं चला। इसकी जगह मच्छर भगाने वाली कॉइल (अगरबत्ती) या बिजली की मशीन से चलने वाले लिक्विड से भरे मॉस्किटो रिप्लेंट ने ले ली जिनकी तीव्रता मच्छरों की तादाद कम-ज्यादा होने के अनुसार घटाई-बढ़ाई जा सकती है। पर इसका असर क्या होता है। इसका फौरी प्रभाव तब दिखता है, जब लोग बंद कमरों में मॉस्किटो रिप्लेंट या मच्छर अगरबत्ती जलाकर मच्छरों के प्रकोप से बचते हुए आराम से सोने का सुख तो उठा लेते हैं, लेकिन सुबह उठने पर खुद को तरोताजा महसूस नहीं करते। भरपूर नींद लेने के बावजूद आंखों में जलन, सुस्ती, चक्कर आदि की शिकायत करते हैं। कोई यह बात समझने को तैयार नहीं है कि उनकी सुस्ती के पीछे पीछे ज्यादा असर वाला मॉस्किटो रिप्लेंट हो सकता है।
मारे देश में लोगों को प्राय- इसकी जानकारी तक नहीं दी जाती कि घरेलू कीटनाशकों में कितनी तरह के जहरीले रसायन होते हैं और उनका ज्यादा देर तक इस्तेमाल घातक हो सकता है। हालांकि विदेशों में इसे लेकर काफी सतर्कता बरती जाती है। कुछ वर्ष पूर्व अमेरिका की ड्यूक यूनिवर्सिटी के फार्माक्लॉजिस्ट मोहम्मद अबु-डोनिया मॉस्किटो रिप्लेंट में इस्तेमाल होने वाले रसायन- डीट (DEET) से बने रिप्लेंट का इस्तेमाल चूहों पर किया, तो पाया कि उन चूहों की दिमागी कोशिकाओं (ब्रेन सेल्स) की मृत्यु होने लगी, उनका व्यवहार आक्रामक हो गया और त्वचा में कई परिवर्तन होने लगे। डीट का इस्तेमाल उन्होंने एक रिप्लेंट के तौर पर ही ठीक उसी तरह किया था, जैसे उसका इस्तेमाल आम तौर पर घरों, दफ्तरों या होटलों में मॉस्किटो रिप्लेंट के रूप में होता है। इस अध्ययन की रिपोर्ट में अबु-डोनिया ने लिखा- अच्छा होगा अगर इंसान तीखे असर वाले घरेलू कीटनाशकों से दूर रहें क्योंकि ये उनके दिमाग और कोशिकाओं पर असर डाल सकते हैं। ऐसे अध्ययनों के बाद से अमेरिका, कनाडा और यूरोपीय संघ के देशों में मॉस्किटो रिप्लेंट से लेकर अन्य घरेलू कीटनाशकों में डाले जाने वाले रसायनों की मात्रा सख्ती से नियंत्रित की जाने लगी। वहां ऐसे रिप्लेंट और अन्य कीटनाशकों पर साफ लिखा जाता है कि नवजात शिशुओं और गर्भवती स्त्रियों के रहने वाली जगहों का उनका इस्तेमाल नहीं किया जाए क्योंकि ऐसा करने पर बच्चों में आनुवांशिक परिवर्तन होने का खतरा रहता है। दक्षिण कोरिया में तो कीटाणुनाशकों के प्रचलन को बाकायदा एक स्कैंडल करार दिया गया है और ऐसे केमिकल बेचने वाली कंपनियों पर बंदिशें लगाई गई हैं। वहां ऐसे कीटाणुनाशक बेचने वाली एक प्रमुख कंपनी- ऑक्सी (एंग्लो-डच बहुराष्ट्रीय कंपनी रैकिट बेंकिसर की एक इकाई) ने वर्ष 2000 की शुरुआत से ऐसे कीटाणुनाशक इस दावे के साथ बेचे थे कि ये इंसानों के लिए पूरी तरह सुरक्षित हैं। लेकिन इस कंपनी के कीटाणुनाशकों का इस्तेमाल करने वाले सैकड़ों लोगों ने फेफड़े की गंभीर बीमारियों तक की शिकायत की। पत्रिका- इकोनॉमिस्ट के मुताबिक इन शिकायतों के आधार पर दक्षिण कोरिया सरकार ने कंपनी- ऑक्सी के खिलाफ मामला दर्ज कर आपराधिक स्तर की जांच की थी। इस जांच में पाया गया कि वर्ष 2001 के बाद से ऑक्सी कंपनी के विभिन्न उत्पादों की करीब 45 लाख यूनिटों की जो बिक्री हुई है, उनसे लोगों में फेफड़े की बीमारियों का खतरा 116 गुना बढ़ गया है। क्या यही खतरा अब भारत में नहीं है जहां कीटाणुनाशकों का बाजार तेजी से बढ़ रहा है? और अब कोरोना के बचाव के तौर पर सोडियम हाइपोक्लोराइड से लेकर कई अन्य किस्मों के कीटाणुनाशकों की बाढ़ बाजार में आ गई है।