नए उपभोक्ता क़ानून के लागू होने के साथ अब उपभोक्ता देश के किसी भी कोने में किसी भी उपभोक्ता अदालत में मामला दर्ज करा सकता है। जिससे उपभोक्ता का समय और धन दोनों की बचत होगी। पहले ग्राहक को यह सुविधा उपलब्ध नहीं थी। पहले ग्राहक जहां से सामान खरीदा उसी शहर जाकर उसे शिकायत दर्ज कराने का झमेला उठाना पड़ता था। समय के साथ किसी भी क़ानून में बदलाव और परिस्थितियों के हिसाब से क़ानून बनना बेहद जरूरी होता है। इसी मियाद को मद्देनजर रखते हुए डिजिटल भारत के दौर में ऑनलाइन कारोबार को भी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के दायरे में शामिल किया गया है ताकि ऑनलाइन ठगी आदि से उपभोक्ताओं को निज़ात मिल सके।
इस बार के क़ानून में उपभोक्ता अदालतों के साथ उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग भी बनाया गया है। ख़ास बात इस क़ानून में भ्रामक विज्ञापन दिखाने पर कम्पनी के अलावा उस हस्ती पर कार्रवाई की बात की गई है। जो उक्त वस्तु का प्रचार करेगा। ऐसे में अब उम्मीद की जा सकती, कि गोरे बनाने का गोरखधंधा और तीन हफ़्ते में कद-काठी की लंबाई आदि बढाने का फिजूल विज्ञापन बाज़ार का हिस्सा नहीं होगा। वैसे आज के समय में किसी ऐसे क़ानून की भी जरूरत है जो बाबा-बंगालियों का भी ईलाज कर सकें, क्योंकि कहीं न कहीं सामाजिक भावना और देश की अशिक्षित अवाम को ठगने का काम तो वह भी करते हैं। आप किसी भी ट्रेन की यात्रा करिए वहां तमाम ऐसे पोस्टर आदि मि जाएंगे, जो ईश्वरीय शक्ति तक को भी चुनौती देने वाले दावे कर रहें होंगें! ऐसे में स्वस्थ समाज के लिए इन बाबा-बंगालियों का दमन होना भी बहुत जरूरी है।
वैसे बात नए उपभोक्ता संरक्षण क़ानून की कर रहें। तो यह क़ानून भ्रामक विज्ञापन दिखाए जाने पर दो से पांच वर्ष की सज़ा और पचास लाख तक जुर्माने की बात करता है। इसके अलावा शरीर को आकर्षक और सुंदर बनाने का झूठा दावा करने वाले विज्ञापन दिखाने पर एक लाख रुपए तक जुर्माना और छह माह तक की सज़ा मुक़र्रर करता है। इतना ही नहीं इस क़ानून द्वारा मिलावटी नक़ली सामानों के निर्माण या ब्रिकी के लिए भी सज़ा का प्रावधान है। पहली बार दोषी पाए जाने की स्थिति में संबंधित अदालत दो साल तक की सज़ा और व्यापार के लिए जारी किए गए
लाइसेंस को निलंबित कर सकती है, और दूसरी बार दोषी पाएं जाने पर उस लाइसेंस को रद्द कर सकती है। वैसे इस क़ानून के दायरे में कई छोटी-छोटी बातों का ज़िक्र करके उपभोक्ता के हाथ को मजबूत किया गया है।
अमूमन हम देखते हैं कि सिनेमा हॉल में दर्शकों से ज़्यादा पैसे ऐंठ लिए जाते इतना ही नहीं कई बार तो कैरी बैग तक के लिए पैसे दुकानदार वसूलने की कोशिश करता है। ऐसे में इस क़ानून के माध्यम सेउपभोक्ता इन बातों की भी शिकायत अब कर सकता है। इस नए उपभोक्ता संरक्षण क़ानूनका स्वागत विज्ञापनों की प्रमाणिकता जांचने वाली संस्था एडवरटाइजिंग स्टैंडर्डस कौंसिल ऑफ इंडिया ने भी किया है। इस संस्था ने उम्मीद जताई है कि नए अधिनियम से भ्रामक विज्ञापनों पर महत्वपूर्ण असर पड़ेगा। जो काफ़ी दिनों से छाए हुए हैं।
ऐसे में सवाल यही आख़िर हर बात के लिए अधिनियम या क़ानून का होना ही एक सभ्य समाज के लिए ज़रूरी क्यों? क्यों नैतिकता और सामाजिक सद्भाव हर क्षण कमजोर होता जा रहा हमारे समाज और मानवीय व्यवहार से? भ्रामक और अश्लील विज्ञापन प्रसारित न हो और कोई भी अश्लील वस्तु जैसे पुस्तक, कागज़, रेखाचित्र और मूर्ति आदि न बेचे,न उत्पादित करें। इसके लिए तो भारतीय दंड संहिता- 1860 में धारा-292 है। फ़िर क्या समाज मे ऐसे काम नहीं होते? बिल्कुल होते हैं और यही नहीं धड़ल्ले से होते हैं। इसका निहितार्थ तो यही है लोगों की नैतिकता और इंसानियत ही पैसे और आधुनिक दौर में कमजोर पड़ गई है। ऐसे में सिर्फ़ अधिनियम औक़ानून के डंडे से देश और व्यवस्था को नहीं चलाया जा सकता। कहीं न कहीं सच यह भी है। जब तक देश के लोगों में नैतिक बल नहीं जागेगा। नैतिकता और सामाजिक मूल्यों को पुनर्जीवित नही किया जाएगा। सब कुछ भौथरी बातों से अधिक कुछ मालूम नहीं पड़ता और क़ानून का क्या है वह तो बनते ही टूटने के लिए है।