आज की पीढ़ी की आवश्यकता बदल चुकी है। उसके लिए अनेक विषय और अनेक नाम महत्व खो चुके हैं। उन पर कुछ थोपा नहीं जा सकता। जो उनकी जरूरत है वही इतिहास-भूगोल तो पढ़ाया जाए, जो कि नहीं पढ़ाया जा रहा। जयपुर के छात्र को जयपुर का भूगोल-इतिहास तो नहीं पढ़ाया जाता और जापान-अमरीका रटाया जाता है। हमारे वार-त्योहार-परम्पराओं की चर्चाएं शिक्षा से सिमट गईं। मानो शिक्षित व्यक्ति को भारतीय ही नहीं दिखाई देना चाहिए। भूखे मरने पर भी पुश्तैनी काम नहीं, बल्कि नौकरी की प्रतीक्षा करनी चाहिए। तब नव निर्माण की प्रेरणा कहां से आएगी?
आज की शिक्षा नीतियां विवादग्रस्त रहने में ही गौरव का अनुभव करती हैं। पिछले सत्तर वर्षों के अनुभव एवं उपलब्धियों का इस दृष्टि से आकलन होना चाहिए कि पाठ्यक्रम का उद्देश्य क्या था और क्या प्राप्त हुआ?
हर सरकार मूल्यों की शिक्षा की बातें करती है, कमेटियां बनती रहती हैं और रिपोर्टें धूल खाती रहती हैं। जिसकी लाठी उसकी भैंस। हर स्तर पर चुनाव के लिए चयन समिति और निर्णायक मण्डल बनाए जाते हैं और चयन तो फिर भी पर्चियों से ही होते हैं। भले ही सरकारी अलंकरणों का महत्व घट गया हो। आज भी शिक्षा में कहीं महात्मा गांधी के हत्यारे को पढ़ाया जाता है तो उपलब्धि ढूंढ रहे हैं।
नए युग में तकनीक महत्वपूर्ण होगी। कृत्रिम बुद्धिमता के युग में बासी विषय कौन पढऩा चाहेगा? हमें नए आदर्श प्रस्तुत करने चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं कि केवल विकसित देशों की नकल करनी चाहिए। नकल तो गुलामी का प्रमाण है। भारतीय वाङ्गमय इस दृष्टि से श्रेष्ठ है। जब यह लिखा गया था, विश्व में कोई धर्म-सम्प्रदाय पैदा ही नहीं हुआ था। तब राम-कृष्ण कैसे साम्प्रदायिक हो गए? गीता क्यों नहीं पढ़ाई जाती? व्यापक दृष्टि होनी चाहिए शिक्षा में, संकुचित मानसिकता नहीं। हमें नौकर पैदा नहीं करने हैं।
स्वावलम्बन होना चाहिए जीने का आधार। जिन नामों को राज्य सरकार ने पाठ्यक्रम में जोड़ा है वे सभी कर्मयोगी एवं तपस्वी रहे हैं। अपने-अपने क्षेत्र में आदर्श भी रहे हैं और क्षेत्रों को नई ऊंचाइयां दी हैं। इनमें अधिकांश कठिन संघर्ष के दौर से गुजरे और जीरो से हीरो बने हैं। कई के जीवन का मैंने साक्षात् किया है। समय के साथ कुछ तो विस्मृत होता ही है। उनको धकेलना ही उनकी हत्या करना है। परिवर्तन के युग में परिवर्तन अनिवार्य है। सत्तर साल में तीन पीढिय़ां बदल गई। न तो इण्डिया भारत बना, न शिक्षा राष्ट्रभाषा से जुड़ पाई, न हर शिक्षित देश के विकास से ही जुड़ पाया। बल्कि शिक्षा का धरातल भी भ्रष्ट हो गया और शिक्षित व्यक्ति भी।
राजस्थान सरकार ने एक उदाहरण पेश किया है नई दिशा का। एक निर्विवाद नीति का। भारतीय, सामाजिक, सामयिक पृष्ठभूमि के महत्व का। जो नाम छात्र की स्मृति में होंगे। कुछ ने कुछ के बारे में पढ़ा-सुना होगा। इन नामों के पदचिन्ह समय की रेत पर देखे जा सकेंगे। इसी तरह सभी विषयों को सार्थक बनाने की महती आवश्यकता है। राजनीतिक वातावरण एवं अफसरों के प्रभाव ने मिलकर देश के विकास की टांग पकड़ रखी है। आगे बढऩे ही नहीं देते। भले ही देश का अहित हो जाए। ऐसे में शिक्षामंत्री का यह फैसला ठहरे हुए पानी में एक कंकर तो मारेगा।