scriptभरतनाट्यम की नवीन दृष्टि और नए प्रयोग | New vision and new experiments of Bharatnatyam | Patrika News

भरतनाट्यम की नवीन दृष्टि और नए प्रयोग

Published: Mar 26, 2023 08:24:06 pm

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Patrika Desk

बिरजू महाराज ने कभी संवाद में कहा था, ‘हम नृत्य थोड़े ही करते हैं। हम तो हवा में चित्र बनाते हैं, ये चित्र बनते जाते हैं और मिटते जाते हैं।’ ठीक ऐसे ही संध्या पुरेचा अपने नृत्य में भावों का विरल अंगहार सिरजती, भांत—भांत की भंगिमाओं के चित्र जैसे आंखों में बसाती हैं।

भरतनाट्यम की नवीन दृष्टि और नए प्रयोग

भरतनाट्यम की नवीन दृष्टि और नए प्रयोग

भरतनाट्यम की नवीन दृष्टि और नए प्रयोग

डॉ. राजेश
कुमार व्यास
कला समीक्षक

भरत मुनि के नाट्य शास्त्र को पढ़ेंगे तो पाएंगे कि नाटक संगीत और नृत्य के बिना अपना पूर्ण रूप ग्रहण नहीं करता है। अभिनव गुप्त ने नाट्यशास्त्र की जो व्याख्या की है, उसमें नृत्य को ‘शोभा’ कहा गया है। माने नाट्य का सौंदर्य नृत्य में है। यों शास्त्रीय नृत्य हमारे यहां बहुतेरे हैं, परन्तु जिन ज्ञात शास्त्रीय नृत्यों की व्याख्या हमारे यहां उपलब्ध है, उनमें भरतनाट्यम प्रमुख है। भरतनाट्यम का मूल है—भावम्, रागम् और तालम्। माने भ से भाव, र से राग, त से लयबद्ध ताल और नाट्यम का अर्थ है, नृत्य। नंदिकेश्वर के लिखे अभिनय दर्पण में इस नृत्य से जुड़ी मुद्राओं, अंग संचालन, हाव—भावों के संबंध में बहुत सुंदर व्याख्या है। तमिलनाडु के मंदिरों में देवदासियों द्वारा विकसित इस नृत्य का एक दौर वह भी आया जब यह मूल रूप से लुप्त प्राय: हो रहा था। तब ई. कृष्ण अय्यर और रुक्मिणि देवी अरुंडेल के प्रयासों से यह फिर से अपने नए रूप में विकसित हुआ।
इधर इस नृत्य को नए प्रयोगों के साथ जो कलाकार आगे बढ़ा रहे हैं, उनमें संध्या पुरेचा का नाम प्रमुख है। रीतिबद्ध मुद्राओं, लयबद्ध गति के साथ ही नृत्य में ताल का विरल ढंग से निर्वहन करती संध्या के नृत्य को देखते रुक्मिणी देवी खास तौर से याद आती हैं। जिस तरह से अरुंडेल ने इस नृत्य में परम्परा से चले आ रहे शृंगार के प्रभुत्व को तोड़कर भक्ति भावों के आलोक में इसे जीवंत किया और नृत्य के शिक्षा शास्त्र से इसे जोड़ा, ठीक उसी प्रकार संध्या पुरेचा ने दूसरे शास्त्रीय नृत्यों का इसमें समावेश कर अपने तईं एक नई नृत्य भंगिमा ‘अक्षत नायिका’ के जरिए प्रयोगधर्मिता में इसे पुनर्नवा किया है। रुक्मिणी देवी अरुंडेल ने जिस तरह से रामायण की ‘भरतनाट्यम शृंखला’ के जरिए सुदूर देशों तक भारतीय संस्कृति का प्रसार किया, ठीक वैसे ही संध्या पुरेचा ने सनातन धर्म की तीन प्रमुख शैव, वैष्णव और शाक्त धाराओं के मेल में भरनाट्यम को सर्वथा नवीन दृष्टि प्रदान की है। जयदेव कृत अष्टनायिका की उनकी प्रस्तुति हो या फिर शिव के तांडव, शृंगार और रौद्र रूप से जुड़े भावों की व्यंजना, वह नृत्य मंद मनोहारी दृश्यों का जैसे अनुष्ठान करती है। प्रस्तुति के लालित्य संग भंगिमाओं के प्राणवंत छंद में वह भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों को भी जैसे अपने में समाहित करती हममें बसती है।
याद है, खजुराहो नृत्य समारोह में उनकी राग और ताल मालिका से सजी अर्धनारीश्वर, उमा महेश्वर स्त्रोत ‘रूपम देहि, जयं देहिÓ का आस्वाद किया था। भगवान विष्णु के द्वारकाधीश और वि_ल स्वरूप को नृत्त भावों में उन्होंने जैसे हूबहू साकार किया थ। दुर्गा सप्तशती के अर्गला स्त्रोत में शक्ति उपासना की उनकी प्रस्तुति, ऐसे ही आठ नायिकाओं का नृत्य रूपान्तरण कभी न भुलाने वाला है। वह नृत्य करती हैं, तो अंग—प्रत्यंग भी तरंगित हो उठता है। वाद्यों के साथ लय में स्पन्दित उनके हाथ, पैर और पूरा शरीर। नृत्य नहीं गति का एक तरह से आख्यान। नृत्य क्या है? गति—स्थिति का सामंजस्य ही तो!
बिरजू महाराज ने कभी संवाद में कहा था, ‘हम नृत्य थोड़े ही करते हैं। हम तो हवा में चित्र बनाते हैं, ये चित्र बनते जाते हैं और मिटते जाते हैं।’ ठीक ऐसे ही संध्या पुरेचा अपने नृत्य में भावों का विरल अंगहार सिरजती, भांत—भांत की भंगिमाओं के चित्र जैसे आंखों में बसाती हैं। संध्या पुरेचा भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की भी मर्मज्ञ विदुषी हैं। राजस्थान ललित कला अकादमी के पूर्व अध्यक्ष और देश के ख्यातनाम सुरबहार वादक अश्विनी दलवी ने एक दफा कलाओं के अंतर्संबंधों पर जयपुर में महती विमर्श की पहल की थी। तभी उनसे नाट्यशास्त्र, अभिनय दर्पण के आलोक में ढेर सारी बातें हुई थीं। बाद में भोपाल में उनके साथ एक जूरी में नृत्य की शास्त्रीय और लोक परम्पराओं के साथ कला संस्थाओं की भूमिका पर संवाद हुआ था।
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