ओपिनियन

गठजोड़ का भंडाफोड़

कारण साफ भी है और सबको पता भी। ईमानदारी का ढोल पीटना
राजनेताओं की मजबूरी है तो कारपोरेट घरानों

Feb 27, 2015 / 06:15 pm

मुकेश शर्मा

इस देश को चलाने वाले राजनेताओं, आला अफसरों और उद्योगपतियों से भगवान ही बचाए। जो कहते हैं कभी करते नहीं और जो करते हैं, किसी को भनक तक नहीं लगने देते। वो तो भला हो “सूचना के अधिकार” का जिसने पिछले सालों में नेताओं, अफसरों और उद्यमिायों की सांठगांठ के भंडाफोड़ से इनकी कथनी और करनी का अंतर साफ कर दिया है।

एक समाचार पत्र की रिपोर्ट को आधार माना जाए तो साफ हो जाता है कि कोई उद्योग घराना अपने फायदे के लिए कैसे राजनेताओं-अफसरों का इस्तेमाल करता है। कंपनी के ई-मेल से हुआ खुलासा चौंकाने वाला तो है ही, यह सच भी उजागर कर देता है कि संसद से लेकर सड़क तक एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वाले अलग-अलग दलों के नेता कैसे मिल-जुलकर लाभ उठाते हैं।

एस्सार समूह के आंतरिक पत्राचार से हुए खुलासे में परिवहन मंत्री नितिन गडकरी, पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह और भाजपा सांसद वरूण गांधी के नाम सामने आए हैं। गडकरी ने सपरिवार इस समूह की शाही नौका का लुत्फ उठाने की बात स्वीकार की।

वे यह भी बताने से नहीं चूके कि समूह के मुखिया उनके पारिवारिक दोस्त हैं और जब उन्होंने नौका सवारी की तो वे न भाजपा अध्यक्ष थे, न मंत्री या सांसद । कंपनी के ई-मेल से आला नौकरशाहों-सांसदों को 200 अत्याधुनिक सेलफोन देने की बात जाहिर हुई है तो सरकारी सूचनाएं हासिल करने के लिए आला अफसरों को दिवाली,नए साल पर खास तोहफे देने की बात भी पता चलती है।

कंपनी ने अपने काम निकलवाने के लिए किसी को शाही नौका की सवारी कराई, किसी के कहने पर उनके लोगों को नौकरी पर रखा तो किसी को महंगे तोहफों से नवाजा। मामला सिर्फ एस्सार तक सीमित हो, ऎसी बात नहीं।

हमाम में सब नंगे हैं, सिर्फ नजर डालने की देर है। पिछले दिनों दिल्ली स्थित मंत्रालयों से सरकारी दस्तावेज चुराने के आरोप में पकड़े गए बिचौलिए इसी कड़ी के हिस्से नजर आते हैं। पैसे लेकर अहम सरकारी दस्तावेज कारपोरेट घरानों तक पहुंचाने का खेल लम्बे समय से चल रहा है लेकिन बड़े खिलाड़ी कभी पकड़ में नहीं आते।

चंद बिचौलिए जरूर पकड़े जाते हैं लेकिन सेंधमारी रूकने का नाम नहीं लेती। कारण साफ भी है और सबको पता भी। ईमानदारी का ढोल पीटना राजनेताओं की मजबूरी है तो कारपोरेट घरानों की मदद करना उससे भी बड़ी बाध्यता।

मजबूर देश का मतदाता भी है जो सब कुछ जानते-बूझते कभी किसी दल को तो कभी किसी दल को सिंहासन पर बिठाता रहता है। उसे जिम्मेदार नागरिक के नाते मताधिकार का उपयोग भी तो करना है। आम आदमी अपना काम कर रहा है तो राजनेता, अफसर और उद्योगपति भी अपना “काम” करने में कहीं पीछे नजर नहीं आते।




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