मानसून के ज्यादातर हिस्सों में सक्रिय हो चुका है।
सावन मास में झमाझम ने चहुंओर हरीतिमा बिखेर दी है। लेकिन कुदरत की यह नियामत भी राजनीति के कारण आपदा बन गई है। महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में नदी- नाले उफान पर हैं। सैकड़ों लोग जान गंवा चुके हैं और अरबों रुपए की संपदा, सड़क-पुल, रेल पटरियां जल समाधि ले चुकीं हैं। आखिर सालों-साल से यह क्यों होता आ रहा है कि जीवन के लिए वरदान जल ही अभिशाप बन रहा है?
हर सरकार आपदा प्रबंधन के नाम पर अरबों रुपए का बजट रखती है लेकिन
मानसून समय सब व्यर्थ ही जान पड़ता है। क्यों नहीं योजनाओं को मूर्त रूप दिया जाता? क्यों बारिश का 90 फीसदी से ज्यादा पानी तबाही मचाता हुआ अपने साथ उर्वरा मिट्टी को बहाकर समुद्र में ले जाता है? क्या हम इस स्थिति में नहीं कि आसमान से बरसते इस अमृत को सहेजें ताकि ना सिर्फ खेती बल्कि पेयजल के लिए भी किसी को तरसना नहीं पड़े।
पूर्व प्रधानमंत्री
अटल बिहारी वाजपेयी की नदी जोड़ो योजना का प्रस्ताव राजनीति की फाइल में कहीं खो गया। स्वच्छ भारत, नमामि गंगे जैसी नई-नई योजनाएं सामने आ गईं। केन्द्र सरकार को चाहिए कि नदियों को जोड़कर वर्षा जल को व्यर्थ में बहने से रोकने पर काम हो ताकि जिन नदियों-बांधों और जलाशयों में अतिक्रमण के कारण पानी की आवक रुक गई हो, वहां बिना भेदभाव बारिश के पानी को संग्रहित किया जा सके। समय पर नहरों, नालों और शहरी नालियों की सफाई हो ताकि यह जल बिना किसी को नुकसान पहुंचाए बांधों, जलाशयों को भर सके। लेकिन होता इसका उलट है।
आपदा के समय नेता लोग हेलीकॉप्टर दौरे कर रस्म अदायगी कर लेते हैं। बाढ़ राहत, आपदा प्रबंधन के नाम पर जारी करोड़ों-अरबों रुपए की राशि पीडि़तों तक पहुंचने के बजाए उनकी तिजोरियों में पहुंच जाती है। उनके लिए तो मानसूनी आपदा ‘तीज का त्योहार’ बन जाती है। यदि सरकार वाकई सबका साथ-सबका विकास चाहती है तो हवाई योजनाएं नहीं, जमीनी स्तर पर काम हों, भ्रष्ट तंत्र पर लगाम दिखावटी नहीं होकर चमड़ी खींचने वाली चाबुक होनी चाहिए। तभी इंद्रदेव की सौगात मनुष्यों के लिए वरदान होगी, वरना इसी तरह हर साल लोग मर भी रहे हैं और नुकसान भी झेल ही रहे हैं।