अदालत में प्रस्तुत साक्ष्यों को देखने के बाद अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अमिताभ रावत ने कहा, ‘आरोप है कि इन्होंने गोली चलाई जो राहुल को लगी, पर राहुल कहां है? पुलिस ने आज तक राहुल को नहीं देखा, फिर किसने बताया कि किसने गोली चलाई और किसे गोली लगी?’ पुलिस जांच में हम अक्सर ऐसी कमियां पाते हैं। कभी-कभी जान-बूझकर भी जांच में ऐसे तथ्यों को नजरअंदाज किया जाता है, ताकि अदालत में मामला टिक नहीं पाए, तो कई बार हड़बड़ी में ऐसे आरोप लगा दिए जाते हैं, जिन्हें साबित करना ही मुश्किल हो जाए। पुलिस जांच में लापरवाही और साक्ष्यों की कमी की वजह से न जाने कितने अपराधी बचनिकलते हैं।
ऐसी घटनाएं अपराध-न्याय की प्रक्रिया पर सवाल बनकर चुभती रहती हैं। ऐसा ही एक अन्य मामला यूपी के भदोही जिले का भी सामने आया है, जिसमें चार लोगों को अपहरण का दोषी मानते हुए सजा सुना दी गई। वे तीन साल की सजा काट भी चुके हैं। उन पर हत्या की नीयत से अपहरण का आरोप लगाया गया था। अब 12 साल के बाद यह खुलासा हुआ कि अपहृत व्यक्ति इस बीच छिप-छिप कर घर आता रहा। हाल ही में टूलकिट प्रकरण में जिस तरह एक पर्यावरण कार्यकर्ता के खिलाफ पेश सबूतों को अदालत ने खारिज किया, उससे भी पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े होते हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि भले ही दिल्ली की एक अदालत ने सैकड़ों खरगोशों को मिलाकर घोड़ा बनाने की पुलिस की कहानी पर भरोसा नहीं किया हो, पर कई मामलों में पुलिस ऐसा करने में सफल हो जाती है।