75 वर्ष पहले कोई भी इंसान ‘पर्यावरण’, ‘प्रदूषण’, ‘जैव- विविधता’ और ‘जलवायु परिवर्तन के खतरों’ को लेकर चिंतित नहीं था। वास्तव में, ये मुद्दे किसी के एजेंडे में ही नहीं थे। महात्मा गांधी, जिन्होंने राष्ट्रनिर्माण के हर पहलू पर विशद लेखन किया है, ने 1909 में लिखी अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में औद्योगिकीकरण और भौतिकवाद के प्रति आम जनता को चेताया था। वे नहीं चाहते थे कि भारत पश्चिमी जगत का अंधानुकरण करे। उन्होंने चेतावनी दी थी कि भारत यदि अपनी विशाल आबादी के चलते पश्चिम की नकल करने की कोशिश करता है, तो पृथ्वी के सभी संसाधन उसके लिए पर्याप्त नहीं होंगे। गांधीजी की चेतावनी को नजरअंदाज करते हुए जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने विकास और औद्योगिकीकरण के लिए पश्चिमी शैली को थोपने की कोशिश की और भारत का भविष्य इसी आधार पर तय किया। आजादी के बाद भारत अपने लोगों की जरूरतों के लिए विकास का मॉडल बनाने में विफल रहा। पर्यावरण विनाश हुआ, गरीबी बढ़ी और ग्रामीण एवं वनवासी समुदाय हाशिए पर चले गए। हमें मालूम है कि उत्तरोत्तर सरकारों ने पर्यावरण विनाश को रोकने के लिए कुछ नहीं किया। पिछले दो दशकों में जंगलों से लेकर महासागरों तक, पानी से लेकर हवा तक पारिस्थितिकि तंत्र पर अप्रत्याशित प्रहार किए गए। और, यह सब उस ‘विकास’ के लिए हुआ जिससे केवल 10 प्रतिशत से भी कम लोगों को लाभ पहुंचा है।
स्वतंत्र भारत 75 साल का हो रहा है, पर आज भी भारत एक ‘गरीब’, ‘बहुत अधिक असमानता’ और एक ‘समृद्ध अभिजात्य वर्ग’ वाला देश है। ‘विश्व असमानता रिपोर्ट 2022’ के अनुसार शीर्ष 10% आबादी के पास कुल राष्ट्रीय आय का 57% हिस्सा है (जिसमें 1% आबादी के पास 22% हिस्सेदारी है (तालिका देखें)। भारत न केवल अपने सतत विकास लक्ष्यों में पीछे छूट रहा है, बल्कि पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक 2022 में वह सबसे नीचे है। 180 देशों में सबसे कम अंक भारत को मिले हैं। 75 प्रतिशत से ज्यादा भारत के जिले, जहां 63.8 करोड़ से ज्यादा लोग रहते हैं, पर्यावरणीय घटनाओं के हॉटस्पॉट हैं। ये जिले चक्रवात, बाढ़, सूखा, लू, शीतलहर, भूस्खलन, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि और हिमनद जैसी मौसमी घटनाओं की चपेट में हैं। यह अतिशयोक्ति नहीं कि 75 प्रतिशत भारत अपने ही कचरे की गिरफ्त में है और 25 प्रतिशत जहरीली हवा में सांस ले रहा है। 75 प्रतिशत जलस्रोत प्रदूषित हैं और 25% लोग कैंसर से पीडि़त हैं। गांधीजी ने हमें पहले ही औद्योगिकीकरण और उपभोक्तावाद के खतरों से आगाह कर दिया था।
बुरी खबर तो यह है कि विज्ञान एकदम स्पष्ट है। जलवायु परिवर्तन संकट ने हमें ऐसे मुकाम पर ला खड़ा किया है, जहां से वापसी की कोई रोशनी नहीं दिखती। हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। यह स्थिति केवल भारत की ही नहीं, बल्कि दुनिया की है। ज्यादातर अध्ययनों से संकेत है यदि ग्लोबल वार्मिंग में इजाफा होता रहा तो 2050 तक दुनिया में भोजन, पानी और स्वास्थ्य संकट गहरा जाएगा। मानवजाति को बड़े पैमाने पर विस्थापन का दंश झेलना होगा। पर्यावरणविद् के रूप में, ईमानदारी से कहूं तो आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान जश्न मनाने के लिए हमारे पास बहुत थोड़ा ही है। सिवाय इसके कि हम अगले 25 वर्ष की चिंता करें। यदि भारत को जलवायु संकट के विनाश से बचे रहना है तो तुरन्त ही विध्वंसात्मक पर्यावरणीय गतिविधियों को बंद करना होगा और पर्यावरण समाधानों पर निवेश करना होगा। विशेषकर, जो अनुकूल हो और आपदा जोखिम में कमी लाए। पर सबसे ज्यादा तो यह कि भारत को पर्यावरण क्षेत्र में मिसाल पेश करनी चाहिए जो हमारे लोकतंत्र के एक अन्य संस्थापक डॉ. बी.आर. आम्बेडकर के विचारों से मेल खाता है। उनके विचार पारिस्थितिकी में लोकतंत्र और समावेशी पर्यावरणवाद पर ध्यान केंद्रित करते हैं। यानी इंसान समेत सभी प्रजातियों का प्रकृति पर समान अधिकार है। संकल्प लें कि पर्यावरण संरक्षण में अब और देरी न हो।