चीन, बौद्ध धर्म गुरु दलाई लामा के भारत समर्थन और भारत द्वारा चीनी सीमा पर सैन्य तैनाती को लेकर शुरू
चीन, बौद्ध धर्म गुरु दलाई लामा के भारत समर्थन और भारत द्वारा चीनी सीमा पर सैन्य तैनाती को लेकर शुरू से आक्रामक रहा है। दलाई लामा की अरुणाचल प्रदेश की यात्रा पर ही चीन आपत्ति जताता रहा है। हाल ही में जब लामा मंगोलिया यात्रा करके लौटे तो चीन ने न सिर्फ मंगोलिया को तगड़ी फटकार लगाई बल्कि एक मुख्य सीमा भी बंद कर दी। वहीं चीन के कुछ दैनिक अखबारों के संपादकीय में लिखा गया कि भारत मंगोलिया में लामा की यात्रा के जरिए चीन के खिलाफ ‘प्रॉक्सी फाइट्सÓ कर रहा है। अब मंगोलिया ने लामा की भविष्य में कोई भी यात्रा न होने देने का चीन को वादा किया है।
हालांकि हम मंगोलिया से कोई आपत्ति नहीं जता सकते। वह चीन का उपनिवेश रहा है। वह भले ही स्वाधीन होने का दंभ पाल सकता है पर चीन को नजरंदाज नहीं कर सकता। पर जहां तक भारत का प्रश्न है तो हमने जब से लामा को शरण दी है चीन की नाराजगी और खीझ जगजाहिर है और इसकी हम कीमत चुकाते रहे हैं। पं. नेहरू ने तिब्बत को चीन का अंग मानने की भूल की थी। वहीं अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख के हिस्सों में भी चीन दावा करता रहा हो पर भारत की मंगोलिया जैसी कोई मजबूरी नहीं है कि हम उसके दबाव में आ जाएं। भारत में दलाई लामा के ठहरने और भ्रमण पर कोई रोक-टोक नहीं हो सकती। पर चीन भारत पर दबाव की कूटनीति अपनाता रहा है।
चाहे वह अरुणाचल में हमारी जल विद्युत परियोजना को एशियन बैंक द्वारा ऋण न देने की बात हो या विएतनाम से भारत के बढ़ते संबंधों पर बयानबाजी, चीन की बौखलाहट बढ़ी है। भारत ने सीमा पर ‘माउंटेन स्ट्राइक कॉप्र्सÓ, ‘ब्रह्मोस सुपरसोनिक कू्रज मिसाइलÓ की तैनाती के साथ-साथ अब ‘स्पेशल फ्रंटियर फोर्सेजÓ को वहां फिर से खड़ा करने की खबर पर चीनी एस्टेब्लिशमेंट में तिलमिलाहट है। क्या भारत अपनी सीमाओं पर रक्षा तैनाती चीन से पूछकर करेगा? भारत को इस दौरान सबसे बड़ा समर्थन इस बात से मिला है कि अब अमरीका में डोनाल्ड टं्रप ने चीन से भिडऩा शुरू कर दिया है। दक्षिण चीन सागर में चीन के विस्तार को चुनौती मिली है। भारत और अमरीका ने वहां चीन को काउंटर करने के लिए सामरिक समझौते किए हैं। टं्रंप भले ही अपने सामरिक हितों का काम कर रहे हों पर उससे भारत को भी चीन के खिलाफ लाभ मिल सकता है।
वैसे, हम चीन के खिलाफ सिर्फ अमरीका के भरोसे ही नहीं रह सकते। हमें अपनी सीमा पर मजबूत मौजूदगी रखनी होगी और आक्रामक कूटनीतिक भाषा अपनानी होगी। दरअसल, चीन के समक्ष हमारी सबसे बड़ी मूर्खता यूपीए के दस साल के कार्यकाल में में रही। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन ङ्क्षसह ने कहा कि चीन के साथ हमारे आर्थिक रिश्तों को मजबूती देनी चाहिए और सीमा विवाद को तवज्जो नहीं देनी चाहिए। यही वजह है कि चीन का हमारे साथ व्यापार अचानक 70 अरब डॉलर का हो गया और हमारा व्यापार असंतुलन 30 अरब डॉलर को हो गया। हम सिर्फ व्यापार पर नजरें लगाए रहे और चीन ने इस दौरान नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव से लेकर पाकिस्तान में ग्वादक बंदरगाह तक भारत को घेर लिया। मैं हमेशा कहता रहा हूं कि भारत के साथ चीन का सहकार कभी भी नहीं हो सकता। पाकिस्तान के साथ भारत के संबंध तब तक नहीं सुधर सकते, जब तक उस पर चीन का हाथ है।
दुनिया में अब अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समीकरण तेजी से बदल रहे हैं। डोनाल्ड ट्रंप के आगाज से नाटकीय परिवर्तन की उम्मीद है। रूस के साथ ट्रंप और उनके विदेश मंत्री की नजदीकियां हैं। रूस चाहता है कि दुनिया में पहले विश्व युद्ध के पूर्व जैसी स्थिति हो जाए। एक महाशक्ति अमरीका हो और दूसरा सिर्फ रूस। हालांकि अब विश्व दो धु्रवीय नहीं रहा है। चीन विश्व में रूस की बराबरी करने को आमादा है। अमरीका के लिए बड़ी चुनौती बनना चाहता है। पर अभी यह मुमकिन नहीं है। चीन और पाकिस्तान के एक साथ होने पर अमरीका भारत के साथ रहेगा। रूस आजकल तटस्थ भूमिका अदा कर रहा है। पुतिन खुद पूर्वी यूरोप में अपना वर्चस्व बढ़ाना चाह रहे हैं।
आजकल उभरते दक्षिणपंथ से हमें चीन को दबाने का रास्ता मिल सकता है। भारत को चीन की धमकियों से अपनी रणनीति बदलनी की जरूरत नहीं है। भारत यदि खुद को दूसरे दर्जे की एशियाई ताकत मानने को तैयार हो गया और चीन के सामने मनमोहन सिंह के कार्यकाल की तरह बिछे रहने की प्रवृत्ति रहेगी तो हमें एशियाई महाशक्ति बनने का भ्रम छोड़ देना चाहिए। भारत को एशिया में बांग्लादेश, म्यांमार, नेपाल जैसे हिंदू आबादी वाले मुल्कों को साथ लेकर चले तो चीन का मुकाबला करना आसान होगा।
चीन जानता है कि वह वर्ष 1962 की कहानी नहीं दोहरा सकता। तत्कालीन सत्ताधीशों की गलतियों की वजह से हम वह युद्ध हारे थे। ङ्क्षहदी-चीनी भाई-भाई का नारा हमारे काम नहीं आएगा। हमें नरम रवैया छोडऩा पड़ेगा। मौजूदा सरकार ने दक्षिण कोरिया, विएतनाम जैसे देशों मजबूत सहयोग बनाना शुरू किया है। हम चीन की आक्रामकता से आक्रामक जुबां अपनाकर ही निपट सकते हैं।
प्रो. पुष्पेश पंत चीन मामलों के विशेषज्ञ