विकलांगों के कल्याण के नाम पर सरकारें यों तो बड़ी बड़ी बातें करने से नहीं चूकती लेकिन जब काम करने की बारी आती है तो पीछे हट जाती है। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी विश्व विक़्लांग दिवस की औपचारिकता पूरी की गई .उम्मीद थी शायद नया बिल विकलांगता बिल पारित हो जायेगा और दिव्यांग का नया नाम पाए विकलांगों को सरकार तोहफा देगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. न सत्तापक्ष ना ही विपक्ष ने इस बिल के तुरंत पास होने की वकालत की।
हंगामे के बीच भी आयकर संशोधन अ!धिनियम पास हो गया पर यह बिल नहीं। बिल पास करने के लिये विपक्ष का सहयोग माँगा पर विपक्ष इसके लिये राजी नहीं हुआ .जबकि मान्सून सत्र बर्बाद होने पर गुलाम नबी आज़ाद का बयान था कि हम जनहित के बिल नहीं रोकेंगे। .क्या विकलांग बिल जनहित का नहीं है? विकलांग आन्दोलनो में यही लोग विकलांगों के हमदर्द बनते हैं .येही इनका असली चेहरा है . कारण स्पष्ट है विकलांगो का कल्याण प्राथमिकता मे कहीं नहीं है . यही हाल राज्य सरकार का है .
यह राज्य सूची का विषय है वह सक्षम है विकलांग कल्याण के निर्णय लेने हेतु . यह एक जनकल्याणकारी सरकार का दायित्व भी है की समाज की अंतिम पायदान पर खडे इस वर्ग की सुने. इनमे भी मानसिक विमन्दितो की दशा और भी दर्दनाक है..जो अथक परिश्रम करके पढ लिख गये पर उनके लिये सरकार के पास कोई रोज़गार की नीति नहीं है। और जो असहाय है उनके साथ जामड़ोली जैसे गुनाह होते है . विकलांग ,विशेष योग्यजन ,दिव्यान्ग ..नाम जरूर बदले पर दशा नहीं .सच ही है दर्द का एहसास करने के लिये उस दर्द से गुज़रना जरूरी है