और उसके बाद…? नौ दिन बाद जैसे सब भुला दिया जाता है। फिर वही सिलसिला शुरू हो जाता है। रेप और गैंगरेप! पीडि़ताओं के प्रति पुलिस का अट्टाहास! अब तो थानों में भी होने लगे गैंगरेप। प्रतिदिन मीडिया सजा-धजाकर इन खबरों को परोस रहा है। सरकारें और पुलिस मगरमच्छी आंसू बहाते हैं, जनता का मन बहलाने के लिए। चारों ओर बेटियों के प्रति दरिन्दगी! अभी तो कलियुग बहुत बाकी है। लोग घरों में घुसकर गैंगरेप करने लगे। पति के हाथ से पत्नी को छीनकर रेप करने लगे। तब कौन मां-बाप ऐसी परिस्थितियों में बेटी पैदा करना चाहेंगे। स्कूल के मास्टर अबोध का शिकार करने लगे और सरकार का संगीत चलता है-‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।’ किसके भरोसे? हो सकता है आने वाले समय में पुलिस अधिकारी भी बेटी पैदा करना न चाहें।
परिणाम भी देखते जाएं….
किसी समय गरीब घरों में बेटियां खर्च की दृष्टि से अभिशाप मानी जाती थीं। विशेषकर गांवों में। आज ठीक उल्टा हो रहा है। गांव से अधिक शहरी लोगों को, निर्धन से ज्यादा अमीरों को ‘पुत्र रत्न’ चाहिए। आज शहरी और समृद्ध व्यक्ति समर्थ भी है। मनचाही संतान पैदा कर लेता है। तकनीक उसकी पहुंच में है। ‘बेटी बचाओ’ का नारा कम से कम गरीबों में तो, जिनके लिए यह अभियान चलाया गया था, फेल हो गया। अधिकांश सरकारी अभियान विरुद्ध दिशा में सफल अधिक होते हैं। परिवार नियोजन भी समृद्ध परिवारों में ही अधिक सफल रहा। गरीबों की संख्या बढ़ती गई। आज उन्हीं समृद्ध, शिक्षित परिवारों में बेटियां कम हो रही हैं।
स्त्री-पुरुष का अनुपात तेजी से बदल रहा है। शहरों में गांवों से ज्यादा संख्या घट रही है स्त्रियों की। पिछले सात-आठ सालों में अनुपात एक हजार पुरुषों के मुकाबले नौ सौ से कम रह गया है। क्या यह आर्थिक दृष्टिकोण का ही परिणाम है? इसका उत्तर इस बात में ढूंढना चाहिए कि देश में महिलाओं का अनुपात अतिशिक्षित एवं अति समृद्ध राज्यों-दिल्ली, केरल, तेलंगाना में सबसे कम है।
समय के साथ आबादी के नियंत्रण का प्रभाव भी दिखाई देगा। आज प्रति परिवार संतान का औसत लगभग दो रह गया है। लोग प्रसन्न तो हैं कि संतान का पालन-पोषण अब ठीक से होने लगा है। और यह भी सच है कि लड़कियों के मां-बाप दु:खी रहने लग गए। आशा की किरण किधर?
इसका एक कारण भौतिक विकास पर आधारित शिक्षा। शिक्षित व्यक्ति का बस एक ही सपना रह गया-पैसा। वह किसी भी व्यक्ति का अहित कर सकता है, स्वयं के हित के लिए। संस्कारों का देहान्त हो गया। शिक्षित व्यक्ति के जीवन में धन के प्रवेश के साथ ही संस्कार उठ जाते हैं। अपनी बुद्धिमानी की होशियारी में वह स्वयं के अहित से शुरू करता है। जीवन-दूसरों का-उसके लिए मात्र पदार्थ रह जाता है। स्वयं के लिए जीने लगता है। अपने किए का सुख भोगने में व्यस्त हो जाता है। इसी का एक पक्ष है ‘कन्या भ्रूण हत्या’ का बढ़ता अभिशाप। कोई विचार नहीं करता कि बिना स्त्री के पुरुष की प्रजाति भी लुप्त हो जाएगी। स्त्री भी गुणवान हो, ताकि समाज और देश संस्कारवान बन सके। यह कार्य भी पुरुष को ही करना पड़ेगा। नहीं तो इसकी कीमत उसी की अगली पीढिय़ां चुकाएंगी।
व्यक्ति स्वार्थी भी हो गया और भोगी भी। न बच्चों का दर्द, न मां-बाप का। न ही संबंध बच पा रहा बाप-बेटी का। न सरकार को शर्म, न समाज को।
शिक्षा ने सब को मानवता से शून्य कर दिया है। शरीर तो पशु देह है। जैविक संतानें पैदा हो रही हैं। जिस योनि से जीव आता है, वैसे ही इस देह में भी जीता है। इंसान कौन बनाए इसे?
यह विषय केवल बौद्धिक धरातल के आंकड़ों का नहीं रह गया है कि, लड़कियां कम हो रही हैं और लडक़े बढ़ रहे हैं। प्रश्न है-इंसान कम हो रहे हैं। मानव देह में पशु बढ़ रहे हैं। समाज में हिंसा, बलात्कार और आसुरी वृत्तियां हावी हो रही हैं। तब कौन बचाएगा अपनी बेटियों को और किसके लिए? क्या यह प्रलय की शुरुआत नहीं है?
इसका समाधान…?
सामाजिक संकल्प, शिव संकल्प। कन्या या स्त्री की महत्ता को केवल नौ दिन ही क्यों याद रखा जाए। जिस गांव से खबर आए कि वहां कन्या-भ्रूण की हत्या हुई है अथवा गैंगरेप हुआ है, उस गांव में तो हर दिन नवरात्रा मननी चाहिए। उस दौरान पूरे गांव या पूरी बस्ती को संकल्प लेना चाहिए कि वे आज के बाद फिर किसी स्त्री के मान को ठेस नही पहुंचने देंगे। अपराधियों को सजा काटने के बाद भी गांव में प्रवेश न दिया जाए।
हर घर से युवा क्रान्ति की अलख जगनी चाहिए। उनके स्वयं के भविष्य का प्रश्न है। क्या कन्याएं घर से बाहर निकलना बंद कर दें? घर में घुसने वालों को पुलिस नहीं रोक पाएगी। युवा शक्ति को ही यह उत्तरदायित्व अपने हाथ में लेना पड़ेगा। यदि कोई पुलिस कर्मी अपराध में लिप्त होता है तो उसे भी गांव से बाहर निकाल देना चाहिए। दूसरी ओर परिवारों में शिक्षा-संस्कारों का नया वातावरण बनना चाहिए। अभिभावक अपनी सन्तान को अच्छा नागरिक बनने के लिए नित्य प्रेरित करें। धर्म-ग्रंथों का नित्य पारायण शुरू होना चाहिए। टीवी तथा मोबाइल फोन का प्रभाव कुछ धीमा होगा। बच्चों को और अभिभावकों को भी समझना पड़ेगा कि शरीर नहीं जीता, आत्मा जीता है इस शरीर में। शिक्षा को आध्यात्मिक स्वरूप देना पहली आवश्यकता है। व्यावसायिक स्वरूप तो उच्च शिक्षा से पहले शुरू ही नहीं होना चाहिए। तब बच्चों को प्रकृति और पुरुष का स्वरूप समझने का अवसर भी मिलेगा। जीवन का अर्थ मानव के सम्मान में ही निहित है, यह सीख अनेक समस्याओं से मुक्त करा देगी। वरना कन्या पूजन करके भी हम ईश्वर से भी सदा झूठ बोलते रहेंगे। कन्या की हत्या करने वाली मां को तो फांसी होनी चाहिए।